Thursday, October 29, 2015

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 2”

इस्लाम में बुरका प्रथा की शुरुआत और बुर्के से होने वाली हानियां

पिछली लेख में आपने जाना की भारतीय संस्कृति तथा वैदिक सभ्यता में कहीं भी पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, ये प्रथा विशुद्ध रूप से इस्लामी समाज की देन है, और हिन्दू जाति को अपनी बहन बेटियो की सुरक्षा हेतु पर्दा प्रथा का आरम्भ करना पड़ा, इसी विषय पर आज हम आपको समझाने की कोशिश करेंगे की आखिर इस्लाम में बुरका प्रथा की शुरुआत कैसे हुई और बुर्के से होने वाली हानियां तथा बुर्के का महिलाओ पर प्रभाव आदि।

आइये पहले देखते हैं बुरका प्रथा पर मुस्लिम समाज की मान्य मजहबी पुस्तक "क़ुरान" क्या कहती है :

और मोमिन महिलाओ से कह दे की वे भी अपनी आँखे नीची रखा करे और अपने गुप्त अंगो की रक्षा किया करे एवं अपने सौंदर्य को प्रकट न किया करे सिवाय उस के जो मज़बूरी और बेबसी से आप ही आप जाहिर (जैसे शरीर का लम्बा, छोटा, मोटा व दुबलापन होना) हो जाये और अपनी ओढ़नियो को अपनी छातियो पर से गुजर कर और उसे ढक कर पहना करे तथा वे केवल अपनी पतियों, अपने पिताओ या अपने पतियों के पिताओ या अपने पुत्रो या अपने पतियों के पुत्रो या अपने भाइयो या अपने भाइयो के पुत्रो (भतीजो) या अपनी बहनो के पुत्रो या अपने जैसी स्त्रियों या जिन के स्वामी उन के दाहिने हाथ हुए हैं (अर्थात लौंडिया) या ऐसे अधीन व्यक्तियों (अर्थात नौकर चाकर) पर जो अभी युवावस्था को नहीं पहुंचे या ऐसे बच्चो पर जिन्हे अभी स्त्रियों के विशेष सम्बन्धो का ज्ञान नहीं हुआ, अपना सौंदर्य प्रकट कर सकती हैं तथा इन के सिवा किसी पर भी जाहिर न करे और अपने पाँव (धरती पर जोर से) इसलिए न मारा करे की वह चीज़ जाहिर हो जाये जिसे वे अपने सौंदर्य में से छिपा रही है। और हे मोमिनो ! तुम सब के सब अल्लाह की और झुक जाओ ताकि तुम सफलता पा सको।
(क़ुरान २४:३२)

एक और आयत जो इसी विषय से सम्बंधित है,

हे नबी ! अपनी पत्नियों, अपनी पुत्रियों तथा मोमिनो की पत्नियों से कह दे की वे (जब बाहर निकल तो) अपनी बड़ी चादरों को अपने सिरो पर से आगे खींच कर अपने सीनो तक ले आया करे। ऐसा करना इस बात को संभव बना देता है की वे पहचानी जाए और उन्हें कोई कष्ट न दे सके तथा अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला और बार बार दया करने वाला है।
(क़ुरान ३३:६०)

उपरोक्त वर्णित दो आयतो में से प्रथम आयत का उद्देश्य है की महिलाये अपने श्रृंगार को पुरषो से छुपाये और दूसरी आयत में स्पष्ट बता दिया है की घर से बाहर जाने पर बुरका पहनने से छेड़छाड़ और उत्पीड़न से मुस्लिम महिलाओ का बचाव होता है। यहाँ ध्यान से सोचने की बात है की पुरषो के लिए कोई ऐसी व्यवस्था नहीं पायी जाती की वो भी चादर डालकर महिलाओ से खुद का बचाव करे, ये सारी पाबन्दी आखिर महिला तक ही सीमित क्यों ? क्या ये अल्लाह का स्त्री पुरुष में भेदभाव नहीं ? कुछ पॉइंट जो इन आयतो पर उठ खड़े होते हैं जरा गौर करिये :

1. क्या बिना बुरका पहने किसी महिला की सुंदरता इतनी होती है की पुरुष अपना नियंत्रण खो बैठता है ? यदि ये बात सही है तो फिर जो इसी आयत में बताया की अपने भाई, पिता आदि के आगे बिना बुरका भी बैठो, ये कैसे संभव है ?

2. महिलाये पुरुषो की तरफ आकर्षित नहीं होती, ये कटु सत्य है, और पूरी दुनिया की महिलाओ में एक बड़ा भाग उन महिलाओ का है जो कामुक नहीं होती। बेहद ही कम संख्या में ऐसी असभ्य महिलाये पायी जाती हैं जो अत्यधिक कामुक हो।

3. महिलाये, पुरुषो की तुलना में अधिक संयमी और स्व नियंत्रक होती हैं, ऐसे में भी बुरका उढ़ाने और सौंदर्य छिपाने का कोई औचित्य नहीं, बेहतर होता की पुरुषो को दिशा निर्देश जारी किये जाते, मगर खेद की पुरुषो के लिए कोई दिशा निर्देश क़ुरान में नहीं पाये जाते।

अब तक आप समझ गए होंगे की बुरखा प्रथा से महिलाओ की सुंदरता छुपने और छेड़छाड़ उत्पीड़न बंद होना संभव नहीं, क्योंकि बिना पुरुषो को सभ्यता सिखाये ये सब बंद नहीं हो सकता, क्योंकि महिलये वैसे ही संयमी होती है, कोई कम संख्या की कामुक महिलाये मात्र एक अपवाद है, यदि क़ुरान ये समझाना चाह रहा है की महिलाये कामुक और असंयमी होती है, तो ये क़ुरान के अल्लाह मियां और मुहम्मद साहब का दुनिया की सभी महिलाओ पर बेमाना इल्जाम है, लेकिन अल्लाह मिया और मुहम्मद साहब ऐसे तो न हुए होंगे, इसलिए सच्चाई जानना जरुरी है, आइये हम दिखाते हैं की ये आयते आखिर क़ुरआन के जरिये क्यों नाजिल हुई, देखिये :

मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने बताया की पैगम्बर साहब की पत्निया अल मनासी के विशाल खुली जगह जो बकि अत मदीना के नजदीक थी, रात्रि में पेशाब करने हेतु जाती थी। उमर साहब ने पैगम्बर साहब को बोला अपनी पत्नियों को परदे में रखिये लेकिन अल्लाह के रसूल ने ऐसा न किया। एक रात ऐसा हुआ कि पैगम्बर साहब की एक पत्नी जिनका नाम सउदा बिन्त ज़मआ था जो एक लम्बी महिला थी इशा के समय बाहर (पेशाब करने) गयी। उमर साहब ने महिला को सम्बोधन करते हुए कहा कहा "मैंने तुम्हे पहचान लिया है, तुम सउदा हो", ऐसा उन्होंने कहा क्योंकि वो बेसब्री से इन्तेजार कर रहे थे अल हिजाब (मुस्लिम महिलाओ द्वारा परदे का अवलोकन) आयतो के नाजिल होने की। इसलिए अल्लाह ने अल हिजाब (आँखे छोड़ पूर्ण शरीर को चादर से ढकना) आयत नाजिल की।
(सही बुखारी, जिल्द १, किताब ४ हदीस १४८)

बिलकुल यही हदीस, सही बुखारी में जिल्द ८ किताब ७४ हदीस २५७ में भी द्रष्टव्य है, इसके अतिरिक्त सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५३९७ भी यही बताती है की महिलाओ को बुरखा पहनने वाली आयत, उमर साहब द्वारा पेशाब जाती महिलाओ को पहचानने से बचाने हेतु नाजिल की गयी।

अब जरा कुछ समझने की कोशिश करते हैं, देखिये :

1. उपरोक्त हदीसो से ज्ञात होता है कि उमर साहब बार बार पैगम्बर मुहम्मद साहब से महिलाओ को चादर (बुरखा) से ढकने वाली आयते अल्लाह से नाजिल करने को दोहरा रहे थे ताकि क़ुरान में महिलाओ के लिए चादर (बुरखा) से ढकना अनिवार्य हो जाए।

2. उपरोक्त हदीसो से साफ़ ज्ञात है की ये अल हिजाब की आयते अल्लाह द्वारा नाजिल नहीं की गयी, क्योंकि ये उमर साहब की मांग थी जिसे मुहम्मद साहब ने पूरा किया।

3. उमर साहब ने मुहम्मद साहब की एक पत्नी जो खुद को राहत देने (पेशाब) करने गयी थी, उनका पीछा किया, न केवल पीछा किया, बल्कि "सउदा" नाम से भी पुकारा जो किसी भी हालत में ठीक नहीं था, क्योंकि मुहम्मद साहब की पत्निया मुस्लिमो की माँ सामान है।

4. सउदा जो मुहम्मद साहब की पत्नी थी उन्होंने घर जाकर, उमर साहब द्वारा किये बेहूदे और शर्मिंदगी वाले काम की शिकायत मुहम्मद साहब से की थी (सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस ३१८) (सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५३९५)

5. इन सब कार्यो के बाद ही और जो उमर साहब चाहते थे, उसे पूरा करने हेतु हिजाब वाली आयते नाजिल की गयी।

इन सबको पढ़ने से निष्कर्ष निकलता है की उमर साहब की हिजाब आयतो की मांग से पहले तो मुहम्मद साहब खुद भी राजी नहीं थे, मगर उमर साहब के कामो के बाद अल्लाह तक राजी हो गया जो हिजाब की आयत उतारी ? क्या ये इंसाफ है ?

लेकिन एक और चौंकाने वाली बात का खुलासा हदीस में होता है, की हिजाब वाली आयते नाजिल होने बाद, मुहम्मद साहब की पत्निया बुर्के में आने जाने लगी, मगर उमर साहब को इससे भी चैन नहीं आया, वो फिर भी मुहम्मद साहब की पत्नी का पीछा करते रहे, देखिये (सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस ३१८)

जरा सोचिये क्या हिजाब या बुरखा यहाँ महिलाओ के काम आया ?

उपरोक्त क़ुरानी आयतो में बताया है की बुरका, महिलाओ को पुरुषो की अवांछित वासनामयी दृष्टि से बचाव करता है, आइये इस विषय पर भी इस हदीस का अवलोकन करे :

मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने बताया की एक नपुंसक (हिजड़ा पुरुष) पैगम्बर साहब की पत्नियों के यहाँ आया जाया करता था और उनको (पैगंबर) को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि वो नपुंसक (हिजड़ा) बिना किसी वासनामयी इच्छा के आता था। एक दिन जब वह नपुंसक, पैगम्बर साहब की कुछ पत्नियों के पास बैठकर महिलाओ की शारीरिक विशेषताओ के बारे में बता रहा रहा तभी मुहम्मद साहब आ गए और उन्होंने ये सब सुन कर कहा "मुझे नहीं पता था, ये इन बातो को भी जानता है, अतः अब इससे सेवा करवाना वर्जित है।" उन्होंने (आयशा) ने कहा : तब उन्होंने (पैगम्बर) साहब ने उस (नपुंसक) से भी पर्दा (बुरखा) करने का आदेश दिया।
(सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५४१६)

उपरोक्त हदीस से ज्ञात होता है की बुरखा की प्रथा, किसी भी हालत में अवांछित वासनामयी दृष्टि से बचाव हेतु भी नहीं है, क्योंकि एक नपुंसक स्त्रियों के प्रति कैसे वासनामयी हो सकता है ? यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है की बुरखे की शुरुआत मुस्लिम (आज्ञाकारी, ईमानवाला) पुरुष से ही मुस्लिम (आज्ञाकारी, ईमानवाली) महिला को छेड़ छाड़ से बचाने हेतु शुरू की गयी।

आइये अब कुछ आंकड़ो पर नजर डालते हैं, मुस्लिमो का ये दावा भी हवा हवाई है की बुरखे से महिलाये छेड़ छाड़ जैसे उत्पीड़न से बचती हैं क्योंकि गैर इस्लामिक समाज में महिलाये बिना बुरखा स्वतंत्रता से घूमती हैं जिनसे छेड़ छाड़ की घटनाएं इस्लामिक देश के समाज से काफी कम है, उदाहरण के लिए इजिप्ट देश में महिला और युवा लड़कियों को हर २०० मीटर पर ही ७ बार छेड़ छाड़ होने का रिकॉर्ड दर्ज है (Egypt’s NCW chief says women harassed 7 times every 200 meters - GhanaMed, September 6, 2012) (Manar Ammar - Sexual harassment awaits Egyptian girls outside schools - Bikya Masr, September 10, 2012) वहीँ दूसरी और बलात्कार की घटनाओ में सऊदी अरब जहाँ हिजाब को सख्ती से लागू किया गया है, दुनिया में highest rape scales in the world ("The High Rape-Scale in Saudi Arabia", WomanStats Project (blog), January 16, 2013 (archived).) में शुमार है। यहाँ एक बात आपको और सोचनी चाहिए, वे लोग जो कहते हैं की बुरखे से महिलाओ को छेड़ छाड़ से निजाद मिलती है इसलिए पहनना चाहिए तो जरा इजिप्ट के आंकड़े पर भी नजर डाल ले क्योंकि जो महिलाये छेड़ छाड़ का शिकार हुई वो अधिकांश तौर पर मुस्लिम थी और हिजाब पहने थी (Magdi Abdelhadi - Egypt's sexual harassment 'cancer' - BBC News, July 18, 2008)

अब स्वयं सोचिये क्या बुरखा किसी भी प्रकार से ऐसी विकृत मानसिक लोगो से निजात दिलवा सकता है ? जरुरी है समाज को ऐसे विकृत मानसिक लोगो से निजाद दिलाना, महिलाओ को बुर्के में कैद करना इस समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि महिलाओ को बुरका पहनने से सेहत का खतरा है, देखिये :

हम जानते हैं विटामिन डी मानव स्वास्थ्य के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है जो वसा में घुलनशील विटामिन है, विटामिन डी किसी भी खाद्य पदार्थ में प्राकर्तिक तौर पर नहीं पाया जाता, यह केवल सूर्य की किरणों से त्वचा पर प्रतिक्रिया होने से विटामिन डी का संश्लेषण होता है जो शरीर के लिए महत्वपूर्ण है। विटामिन डी मजबूत हड्डियों के लिए अतयन्तावश्यक है क्योंकि यह आहार में मौजूद कैल्शियम को प्रयोग में लाता है जिससे हड्डिया मजबूत होती हैं, इसकी कमी से "रिकेट" नामक रोग होता है। इस बीमारी में बोन टिशू एक रोग जिसमे बोन टिशू ठीक तरह से मिनरलाइज नहीं हो पाते, जो आगे चलकर हड्डियों को कमजोर तथा हड्डी विकृति जैसी भयंकर स्थिति उत्पन्न कर देता है।

इस रोग के लक्षण अनेको मुस्लिम बहुल देशो में विटामिन डी की कमी के चलते महिलाओ में पाये गए, सऊदी अरब में किंग फहद यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में की गयी शोध में पाया गया की जो ५२ महिलाओं पर टेस्ट किया गया उनमे सभी महिलाओ में विटामिन डी का स्तर बहुत कम पाया गया जो अनेको गंभीर स्वास्थ्य समस्याए उत्पन्न कर सकता है, जबकि ये एक ऐसा देश है जहाँ सबसे ज्यादा धुप निकलती है पूरी दुनिया के मुकाबले (Elsammak, M.Y., et al., Vitamin D deficiency in Saudi Arabs. Hormone and Metabolic Research, 2010. 42(5): p. 364-368.)

जॉर्डन में किये गए अध्यन के मुताबिक वे महिलाये जो पूरी तरह से इस्लामी वेश भूषा (बुरखा) पहनती थी, 83.3% उनमे विटामिन डी की कमी पायी गयी, ये अध्ययन दोपहर के समय किया गया था। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात ये थी की मात्र 18.2% पुरुषो में ही विटामिन डी की कमी पायी गयी, यहाँ ध्यान रहे, पुरुष बुरखा नहीं पहनते (Elsammak, M.Y., et al., Vitamin D deficiency in Saudi Arabs. Hormone and Metabolic Research, 2010. 42(5): p. 364-368.)

एक बात और बताना चाहूंगा की जॉर्डन भी ऐसी ही जगह है जहाँ अरब देश की भांति सूरज की धुप ज्यादा रहती है। तब भी ऐसी स्थिति में केवल महिलाओ में ही विटामिन डी की कमी पाया जाना ये सिद्ध करता है की बुरका प्रथा महिलाओ के स्वास्थ्य हेतु भी खतरनाक है।

अब हम अंत में यही कहेंगे की बुरखा प्रथा न तो खुदाई आदेश है, न ही बुरखा छेड़ छाड़ से ही बचाव करता है, न ही ये महिलाओ की स्वयं की पसंद है, न ही ये महिलाओ के स्वास्थ्य हेतु ही कोई अच्छा कार्य है। अतः मेरी सभी बंधुओ से विनम्र प्रार्थना है, कृपया इन पाखंडो को छोड़ सत्य सनातन वैदिक धर्म की शरण में आओ, जहाँ महिला और पुरुषो दोनों को ही बराबर अधिकार हैं, कोई छुपने छुपाने की वस्तु नहीं, स्त्री जाति हमारा गौरव है।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते
“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 1”
इस्लाम, नारी और महिला विकास का अवरोधक बुरका
सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पुस्तक में सतीशचंद गुप्ता जी एक अध्याय प्रस्तुत करते हैं "क्या पर्दा नारी के हित में नहीं है ?" अपनी परदे वाली थियोरी को जायज़ (वैध) सिद्ध करने के चक्कर में लेखक इतने मशगूल हुए की बिना सिद्धांतो के ही कुतर्क और मिथ्याभाषण करते हुए, वर्तमान युग में भारतीय नारी का उद्धार करने वाले ऋषि दयानंद को इस्लाम और मुसलमानो का कटु आलोचकर बना दिया। क्या ये समाज को सच्चाई दिखाने की जगह खुद ही सच्चाई पर पर्दा डालने वाली बात न हुई ? लेखक को चाहिए था की नारी की मनोस्थति को समझते हुए उसकी भावनाओ का सम्मान करते, मगर इस्लामी धारणा से ओतप्रोत हुए लेखक ने सच को नकारते हुए, विशुद्ध रूप से मजहबी कट्टरता का परिचय देकर सम्पूर्ण नारी जाती का अपमान कर दिया। क्या ये आक्षेपकर्ता का मानसिक दिवालियापन नहीं है ?
देखिये, पर्दा प्रथा न तो भारतीय संस्कार हैं, न ही ये शब्द ही भारतीय हिंदी भाषा से सम्बंधित है, "पर्दा" शब्द स्वयं विदेशी है जो फ़ारसी भाषा से है, संपादक "डॉ सैयद असद अली" प्रकाशक राजपाल इन संस, दिल्ली से प्रकाशित "व्यवहारिक उर्दू हिंदी शब्दकोष" पृष्ठ संख्या १८८ में शब्द "पसेपर्दा" आता है, जो "फ़ारसी पुल्लिंग" शब्द है। जिसका अर्थ है आड़ में। तो ये बात तो क्लियर है की पर्दा शब्द खुद में ही विदेशी शब्द है, तो इसका मूल भी भारतीय नहीं हो सकता, वैदिक संस्कृति में नारी को सम्मान का सूचक "देवी" कहा गया है, जो कभी भी छुपाने की वस्तु वाले नजरिये से नहीं देखि गयी। क्योंकि "औरत" शब्द अरबी है जो अरबी धातु औराह या आईन-वाव-रा (ayn-waw-ra) से जिसका मतलब है कानापन या एक आंख से देखना से बना है। सीधा सीधा अर्थ है, शायद अरब के लोग नारी को केवल भोग की वस्तु या शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली नजर से ही देखते थे, जिस कारण नारी को "औरत" शब्द यानी छुपाने वाली बना दिया ताकि ऐसी दुष्ट और काम वास्नामयी नजरो से बचा सके।
जबकि भारतीय पद्धति में महिला को देवी का दर्जा प्राप्त है, जिससे ज्ञात होता है की भारतीय परंपरा और संस्कार नारियो के प्रति कितने उदारशील और संस्कारी थे। अब जो बात है पर्दा की तो किसी भी वैदिक साहित्य में महिला को छुपाने या पर्दा करने का विवरण प्राप्त नहीं होता देखिये :
निरुक्त में पर्दा प्रथा का विवरण कहीं मौजूद नहीं।
निरुक्तानुसार संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने के लिए कहीं पर्दा व्यवस्था का विवरण नहीं, बल्कि अधिकार है।
रामायण और महाभारत काल में भी महिलाओ की पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, इसके उल्ट रावण की बहन जब श्री राम और लक्ष्मण के सामने आई तब भी कोई पर्दा न था, जब रावण माता सीता को ले जाकर, अशोक वाटिका में रखा वहा भी कोई पर्दा व्यवस्था नहीं थी। रामायण और महाभारत कालीन इतिहास में स्वयंवर होते थे, तब भी पर्दा व्यवस्था का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
इन सब तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की आर्य सभ्यता में पर्दा व्यवस्था थी ही नहीं, क्योंकि आर्य जाति सदैव सदाचारी और संयमी रही है, अतः पुरुषो को अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही सदाचार है, महिलाओ को ढक कर, छिपा कर पुरुष इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता, खैर ये ढकने और छिपाने जैसी प्रथा से पुरुष की इन्द्रिय संयम में रहती हैं और पुरुष सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है, इतना विज्ञानं अरबी सभ्यता में ही था।
अब हम आपको वेद से प्रमाण दिखाते हैं, देखिये :
सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन
ऋग्वेद (10.85.33)
हे विवाह में उपस्थित भद्र स्त्री पुरुषो ! यह वधु शुभा और सौभाग्यशालिनी है। आप लोग आइये, देखिये और इसे सौभाग्य का आशीर्वाद देकर अनन्तर अपने अपने घरो को जाइए।
यहाँ स्पष्ट है की पर्दा प्रथा का कोई औचित्य भारतीय संस्कृति में महिलाओ के लिए निर्धारित नहीं किया गया। बल्कि आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार वधु को अपने घर ले आते समय वर को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता (भारतीय संस्कृति) में वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (पर्दा) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरावगुण्ठन आती थी। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336)
अब मूल सवाल यह है की ये पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे भारतीय समाज में कैसे दाखिल हुई ? इसका जवाब हमें हुतात्मा पंडित लेखराम कृत "महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र" नामक पुस्तक में बेहद तर्कपूर्ण आधार पर मिलता है, जहाँ महर्षि ने एक शंकालु की शंका समाधान करते हुए कहा :
"स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषो से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती और बिना विद्या प्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं और परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई की जब इस देश के शासक मुस्लमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहु बेटी को अच्छी रूपवती देखा उसको अपने शासनाधिकार से बलात छीन लिया और दासी बना लिया। उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमे सामना करने की सामर्थ्य न थी। इसलिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी स्त्रियों और बहु बेटियो को घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया। सो मूर्खो ने उसको पूर्वजो का आचार समझ लिया। देखो, मेमो अर्थात अंग्रेज की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती और सदाचारिणी होती हैं।"
ऋषि ने जो समझाया उसे न समझकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो आक्षेपकर्ता ने कुछ और ही समझा, स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार है, क्योंकि ये महिला की इच्छा विरुद्ध है, अनेको मुस्लिम महिलाये ही बुरखा का विरोध करती हैं, यहाँ तक की अनेको मुस्लिम महिलाओ ने तो नग्न तक होकर विरोध किया है, ऐसी अनेको खबरों से फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशो के समाचार पत्र भरे पड़े हैं। हम नग्न्ता का समर्थन तो बिलकुल नहीं करते, विरोध सदैव ही शालीन और मर्यादित होना चाहिए, लेकिन शायद उन मुस्लिम महिलाओ को नग्न्ता की राह दिखाने वाला भी बुरखा ही था जिसमे उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। खैर हम ऋषि की दूसरी बात समझते हैं, उन्होंने कहा महिला कभी भी परदे से अपनी सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती, ये कटु सत्य है, क्योंकि भारत में ही अनेको मुस्लिम परिवारो में मुस्लिम बहु की इज्जत को तार तार करने में उसके ही अपने मुस्लिम ससुर का योगदान था। मुजफ्फरनगर उ० प्र० में इमराना का केस मात्र एक उदहारण है, मुस्लिम पति नूर इलाही की जो पत्नी इमराना थी, उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था, तब इस्लामी कानून अनुसार दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा निकाला जो दुनिया से मानवता शर्मसार करने वाला था, इस कानून में पीड़ित महिला जो ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी, उसे उस हैवान की पत्नी बना दिया गया, और जो उसका पति था, जिससे उस महिला को पांच बच्चे थे, उसे बेटा बना दिया, अंततः पीड़ित ने भारतीय संविधान का दरवाजा खटखटाया और पीड़िता को इंसाफ मिला। अब सवाल ये है, क्या बुरखा यहाँ स्त्री की सतीत्व रक्षा कर पाया ? क्या ये जरुरी नहीं था, की पुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखे। महिलाओ को शिक्षित करने से ही महिलाओ का शोषण रुकेगा, क्योंकि महिलाओ को जो अधिकार प्राप्त हैं, वो शरिया कानून नहीं देता, क्योंकि इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना हराम है, महिलाओ का नौकरी करना हराम है, महिलाओ का पर पुरुषो (ऑफिस सहकर्मी) के साथ बैठना, काम करना, सब हराम है। खैर इस विषय पर हम अगले लेख में विचार करेंगे। आप अभी केवल ये सोचिये की यदि महिला शिक्षित होकर नौकरी करना चाहे तो क्या वो ऑफिस में बुरखा पहने हुए, बैठ सकती है ? क्या ये एक प्रकार का मानसिक अत्याचार नहीं है ? क्या पुरुष को भी बुरखे में रहने की आज्ञा है ? यदि नहीं, तो क्यों एक नारी पर अत्याचार किया जाता है, वो भी मजहब के नाम पर ? फिर भी कहते हैं की महिला और पुरुष को इस्लाम में समान अधिकार प्राप्त हैं ? क्या ये एक प्रकार का बेहूदा मजाक नहीं ?
यही बात यहाँ महर्षि ने बताई, की महिला को शिक्षित होना चाहिए, ताकि वो अपने अधिकार प्राप्त कर सके, मगर खेद की इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना, उनको अधिकार देना इस्लामी शरिया में हराम है, पाकिस्तान की मलाला युसूफ ज़ई से ज्यादा इस बात को कोई नहीं समझ सकता।
उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की भारतीय सभ्यता में तो पर्दा का कोई रोल नहीं, ये कुप्रथा विशुद्ध रूप से मुस्लिम शासको के कारण ही भारतीय परिवेश में दाखिल हुई। ऋषि ने जो तर्क दिया था, उसका ही समर्थन करते हुए "भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे" ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र (धर्मशास्त्र का इतिहास) में पृष्ठ ३३७ में लिखते हैं :
"उत्तरी भारत एवं पूर्वी भारत में पर्दा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है, उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।
इसके तीन कारण थे-
हिन्दू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से।
विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण।
विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर।
इतिहास को आप छुपा नहीं सकते, इस विषय पर अनेको लेखको ने स्वतंत्रता से लिखते हुए अपनी सहमति दी है, क्योंकि मुस्लिम शासक और आक्रांता, इस देश में आक्रमण करते और पुरुषो को मारकर, उनकी स्त्रियों को उठा ले जाते तथा अरब आदि देशो में गुलाम दासी के तौर पर दो दो दिनार में बेच देते थे, ये तो इतिहास था, मगर इतिहास फिर दुहरा गया, सीरिया में इस्लामी आतंकी संगठन ने यजीदी महिलाओ को निर्वस्त्र करके गली मोहल्ले में बोली लगाकर १०० डॉलर में बेचा, ये तो अभी हाल की ही खबर है, बिलकुल यही परिस्थिति मुग़ल काल में भी थी राजपुताना में मौजूद अनेको जौहर स्थल इसके साक्षात प्रमाण हैं। इतिहास साक्षी है, की मुस्लिमो की बादशाहत दौरान हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया जाता था, डॉ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक अकबर द मुग़ल पृष्ठ ६३ में लिखते हैं "when people Deosa and other places on Akbar's route fled away on his approach" अब यहाँ शंका ये है यदि राजा भारमल की पुत्री जोधा का विवाह वधु पक्ष की मर्जी से हुआ था तो अकबर के आने पर जनता भाग क्यों गयी ? जाहिर है, वो विवाह था ही नहीं, ये स्पष्ट है की अकबर ने राजा भारमल की पुत्री की सुंदरता के प्रसिद्द किस्से सुने थे, इसीलिए उसे पाने को राजा भारमल पर आक्रमण किया, यही हाल सती रानी दुर्गावती की कहानी का भी है, हालांकि जौहर करने से दो महिलाये बच गयी थी एक दुर्गावती की बहन कमलावती और दूसरी राजा पुरंगद की बेटी थी जिन्हे अकबर के हरम में पंहुचा दिया गया था (जे एम शेलत, अकबर 1964)
अनेको इतिहासिक दस्तावेजो से ये सिद्ध है की उत्तर भारतीय हिन्दू परिवारो में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी, ये कुप्रथा हिन्दू समाज में मुस्लिम आक्रंताओ से हिन्दू महिलाओ को बचाने के लिए अपनाया गया, नवाब वज़ीर लखनऊ का तत्कालीन नवाब सुन्दर हिन्दू महिलाओ को अगवा कर उनको प्रताड़ित किया करता था, और जबरन मुसलमान बनवाता था (इट इज कॉन्टिनुएड, अशोक पंत, पृष्ठ १३०)
औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने हिन्दुओ की दुकानो को नष्ट किया और हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया (India & South East Asia to 1800 सांडर्सन बेक)
औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने घनश्याम जो नवविाहित वधु को डोली में बैठा कर घर ला रहा था, उसे अपने घर के गेट के सामने ही लूट लिया, २ हिन्दू मार दिए गए और घनश्याम की पत्नी को मिर्ज़ा तवाख्खुर अपने घर ले गया (Ahkam-i-Alamgiri)
The Afghan ruler Ahmad Shah Abdali attacked India in 1757 AD and made his way to the holy Hindu city of Mathura, the Bethlehem of the Hindus and birthplace ofKrishna.
The atrocities that followed are recorded in the contemporary chronicle called : ‘Tarikh-I-Alamgiri’ :
“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.
“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared.”
कितने ही प्रमाण दिए जा सकते हैं, जो सिद्ध करते हैं, की हिन्दू महिलाओ पर मुस्लिम आक्रंताओ द्वारा कितना अत्याचार किया गया, की इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति में अनेको परिवर्तन आ गए। जिनमे मुख्य रूप से :
पर्दा कुप्रथा का भारतीय महिलाओ द्वारा अपनाना मुख्य है।
बाल विवाह, ताकि हिन्दू महिलाओ को शोषण से बचा सके।
सती प्रथा, ये जौहर का परिणाम था जिसे स्वेच्छा से अपनाया जाने लगा ताकि मृत हिन्दू पति के बाद हिन्दू महिला की आबरू बच सके।
इसके अतरिक्त सतीशचंद गुप्ता से पूछना चाहेंगे की, जो पर्दा प्रथा हालिया हिन्दू समाज में पायी जाती है, वह केवल घूंघट या सर पर पल्लू रख कर देखि जाती है, लेकिन जो पर्दा प्रथा का समर्थन आक्षेपकर्ता ने किया वो बुरखा है, वो किसी भी लिहाज से घूँघट का कार्य तो करता नहीं, फिर बुरखा की बराबरी घूँघट से करना मानसिक दिवालियापन ही है। क्योंकि हालिया समय में हिन्दू समाज में घूँघट या सर पर पल्लू रखना एक नजरिये से देखे तो आदर सूचक ही लगता है जो बड़े बुजुर्गो के सम्मान हेतु रखते हैं, लेकिन बुरखा घूँघट या पर्दा की बराबरी नहीं कर सकता, फिर क्यों बराबर जोड़ा गया ?
अब हम इस लेख में ज्यादा तो अब नहीं लिख सकते, क्योंकि बड़ा हो जाएगा, अतः अब हम अगले लेख में देखेंगे, कि :
बुरका प्रथा मुस्लिम समाज में कैसे आया ?
बुरखे की हानिया और आज का आतंकवाद
बुरखे से महिलाओ को होने वाली बीमारियां तथा बुरखे पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण
बुरखे के कारण मुस्लिम महिलाओ की स्थति
महिला विकास में अवरोधक बुरखा
और क्या बुरखा महिलाओ के प्रति छेड़ छाड़ और बलात्कार रोक पाता है ?
अगले लेख में।
आओ लौट चले वेदो की और।
नमस्ते

Saturday, October 24, 2015

पुनर्जन्म, मजहब, पंथ, सम्प्रदाय व धर्म के आलोक में

मित्रो, सतीशचंद गुप्ता जी द्वारा उठाया गया पुनर्जन्म पर आक्षेप की मरणोत्तर जीवन : तथ्य और सत्य में वे स्वयं भी स्वीकार करते हैं की पुनर्जन्म होता है, मगर खेद की खुद अपनी ही बात को नकार भी देते हैं, पिछली पोस्ट में भी सिद्ध किया गया था की पुनर्जन्म होता है, ये कोई ख्याली पुलाव नहीं है, सभी मजहबो में पुनर्जन्म माना जाता है, क्योंकि पुनर्जन्म के आभाव में मनुष्य की किये कर्मो का फल कैसे भोग किया जा सकेगा ? इसका प्रामाणिक और संतोषजनक जवाब आज तक कोई व्यक्ति नहीं दे पाया है, देखिये हम पहले भी बता चुके हैं दुबारा बताते हैं :

दुनिया मैं मौजूद लगभग सभी मजहब, पंथ, मत, समुदाय, पुनर्जन्म को पूर्णरूपेण अथवा आंशिक रूप से मानते हैं,

हिन्दू मत, बुद्ध मत, सिख मत, जैन मत सभी मतों सम्प्रदायों में पुनर्जन्म को माना जाता है, मानने का तरीका और प्रक्रिया किंचित भेद है, पर माना जाता है।

लेकिन ईसाई और इस्लाम मत की ये मान्यता है, की मरणोपरांत आत्मा, कब्र में विश्राम करती है, और आखरी दिन आने पर अल्लाह के हुक्म से उठ खड़ी होगी। लेकिन यहाँ भी वो ये मानते हैं की आत्मा को पुनः एक नया शरीर मिलेगा, और वो अपने किये कर्मो के फल उसी शरीर में जन्नत व जहन्नम में भोगेगी। क्या ये पुनर्जन्म नहीं ? क्योंकि पुनर्जन्म का तो कांसेप्ट ही है कर्मो का फल भोग करने हेतु नया शरीर धारण करना, भले ही ये प्रक्रिया थोड़ी अलग हो, लेकिन है तो पुनर्जन्म ही।

लेकिन यहाँ भी एक आक्षेप खड़ा हो जाता है, क्योंकि ईसाई और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय का मानना है की ईसाई मसीह साहब जो बड़े पैगम्बर हुए हैं, वो इसी धरती पर आखरी दिन आने से पहले आएंगे, यानी वो पुनः इसी धरती पर प्रकट होंगे, तो मेरे भाइयो ये तो बताओ की जब ईसा मसीह साहब आएंगे तो वो पुनर्जन्म न होगा ? जब आप पुनर्जन्म को नहीं मानते, तो ईसा मसीह साहब कैसे पुनः वापस आएंगे ?

खैर ये तो ईसाई और मुस्लिम बंधुओ पर छोड़ते हैं, हम आपको दिखाते हैं, क़ुरान और बाइबिल के पुनर्जन्म पर क्या विचार हैं, देखिये :

13 यूहन्ना तक सारे भविष्यद्वक्ता और व्यवस्था भविष्यद्ववाणी करते रहे।
14 और चाहो तो मानो, एलिय्याह जो आनेवाला था, वह यही है।

(बाइबिल मत्ती ११:१३-१४)

यहाँ इस अध्याय में पैगम्बर ईसा यूहन्ना को एलिय्याह का पुनर्जन्म बता रहे हैं।

इसके बारे में और भी सटीकता से ईसा मसीह ने मत्ती के ही अध्याय १७ में और भी अधिक विस्तार से बताया है देखिये :

11 उस ने उत्तर दिया, कि एलिय्याह तो आएगा: और सब कुछ सुधारेगा।
12 परन्तु मैं तुम से कहता हूं, कि एलिय्याह आ चुका; और उन्होंने उसे नहीं पहचाना; परन्तु जैसा चाहा वैसा ही उसके साथ किया: इसी रीति से मनुष्य का पुत्र भी उन के हाथ से दुख उठाएगा।
13 तब चेलों ने समझा कि उस ने हम से यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के विषय में कहा है।

(बाइबिल मत्ती १७:११-१३)

यहाँ सुस्पष्ट हो गया की जो एलिय्याह का पुनर्जन्म होना था वो यूहन्ना के रूप में हुआ।

ऐसी ही अनेक जगहों पर बाइबिल में पुनर्जन्म के प्रमाण मिलते हैं :

5 देखो, यहोवा के उस बड़े और भयानक दिन के आने से पहिले, मैं तुम्हारे पास एलिय्याह नबी को भेजूंगा।

(बाइबिल मलाकी ४:५)

यहाँ एलिय्याह को ही यहोवा ने भेजने का वादा किया जिसकी पुष्टि ऊपर की आयतो में ईसा मसीह खुद करते हैं, अतः ईसाई बंधुओ को पुनर्जन्म के विषय में कोई शंका नहीं रखनी चाहिए, ईसाई बंधुओ को अपनी बाइबिल का विश्लेषण करना चाहिए।

अब इस्लामिक नजरिये से दिखाते हैं :

इस्लाम में कुछ फ़िरक़े ऐसे भी हैं जो पुनर्जन्म पर विशवास रखते हैं, उनमे दो मुख्य हैं हालांकि ये फ़िरक़े जनसँख्या के हिसाब से बहुत कम हैं, पर फिर भी ये मुस्लिम होते हुए भी पुनर्जन्म पर आस्था रखते हैं,

शिया मुस्लिमो में अल्विया एक समुदाय है जिनकी मान्यता है की वो अपने बुरे कर्मो के आधार पर मनुष्यो में ईसाई व पशु योनि प्राप्त कर सकते हैं। (Wasserman J. The templars and the assassins: The militia of heaven: Inner Traditions International. 2001:133–7)

वहीँ मुस्लिमो में एक और समुदाय होता है गुलात, इनकी भी मान्यता है की पुनर्जन्म होते है, क्योंकि गुलात पंथ के संस्थापक का विशेष परिस्थिति में पुनर्जन्म हुआ था जिसे हुलुल कहते हैं, इसलिए इस मुस्लिम पंथ का पुनर्जन्म में विश्वास है (Wilson PL. Scandal: Essays in Islamic Heresy. Brooklyn, NY: Autonomedia; 1988)

अब हम कुछ क़ुरानी आयतो से समझाने की कोशिश करते हैं :

(हे लोगो !) तुम अल्लाह की बातो का कैसे इंकार कर सकते हो ? सच तो यह है की तुम मुर्दा थे, उसने तुम्हे जिन्दा किया। (फिर एक दिन ऐसा आएगा की) वह तुम्हे मौत देगा, फिर तुम्हे जीवित करेगा। इसके बाद तुम्हे उसी की और लौटाया जायेगा

(क़ुरान २:२९)

क्या यहाँ से मुस्लिम भाइयो को स्पष्ट पुनर्जन्म नहीं दिखाई देता ? यहाँ अल्लाह मियां स्पष्ट रूप से कहते हैं की तुम पहले मुर्दा थे, फिर जीवित किया, फिर मौत देगा, फिर जीवित करेगा। ये तो स्पष्ट पुनर्जन्म है।

इसके अतिरिक्त पिछले लेख में भी विज्ञानिक और वैज्ञानिको के निष्कर्ष आधार पर भी पुनर्जन्म सिद्ध होता है, तथा क़ुरान की अनेक आयतो का संदर्भ भी दिया गया है।

जहाँ तक प्रथम सृष्टि के ४ ऋषियों की बात है तो ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में ही लिखा है की जीव अनादि हैं, जब जीव अनादि हैं तो उनके कर्म भी अनादि हुए, उनके जो भोग होंगे वो उन्हें कर्मफल रूप भोगने ही हैं, जब प्रथम सृष्टि, यहाँ प्रथम सृष्टि का अर्थ ये नहीं की ये सृष्टि ही प्रथम है, सृष्टि तो स्वरुप से अनादि है जैसे रात के बाद दिन, और दिन के बाद रात, तथा रात से पहले दिन, दिन से पहले रात रहती है, इसमें प्रथम क्या आया ? लेकिन प्रथम का अर्थ है की जब प्रथम मन्वन्तर यानी इस सृष्टि का प्रथम मन्वन्तर आया तब ४ ऋषियों के ह्रदय में वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ। इसी प्रकार सभी जीवो के कर्म और उनके फलभोग होते हैं। ये सृष्टि तो स्वरुप से ही अनादि है, इस बात को अल्लाह मियां खुद कुरान में स्वीकार करते हैं, फिर आक्षेपकर्ता को तो हमें बताना चाहिए :

यदि पुनर्जन्म नहीं होता, तो जो मनुष्य अंधे, लंगड़े, बेहरे अनेको बीमारियो से ग्रस्त होते हैं, वो क्या अल्लाह की मर्जी है ?

यदि पुनर्जन्म नहीं होता तो जो बच्चे पैदा होते ही मृत्यु की गोद में सो जाते हैं, उनमे उन बच्चो का क्या दोष ? क्या ये एक माता पिता को दुःख अल्लाह की मर्जी से होता है ?

जो पुनर्जन्म नहीं होता तो जो गरीब और अमीर हैं वो किस कारण ? क्या अल्लाह भेदभाव करता है ?

जो पुनर्जन्म नहीं होता तो लाखो, करोडो, वर्षो से जो आत्माए कब्र में सो रही, अथवा जो आत्यमाये आज कब्र में सो रही उन्होंने जो कर्म किये उनके फल उन्हें करोडो वर्षो बाद, न्याय के दिन मिलेंगे, तो क्या ये लचर क़ानून व्यवस्था नहीं ? क्योंकि अंग्रेजी की एक कहावत है, जस्टिस डिले, मीन्स जस्टिस डिनाई, अर्थात न्याय को लम्बा लटकाना न्याय नही करना के सामान है।

एक बात और यदि पुनर्जन्म नहीं होता, तो जो जीव अभी सुख दुःख प्राप्त कर रहे वो किस कर्मो के आधार पर ? जबकि न्याय तो केवल न्याय के दिन होगा। क्या ये तर्कसम्मत है ?

हम तो चाहेंगे, आक्षेपकर्ता सच्चाई को जानने का प्रयास करे, महज थोड़ी झूठी प्रतिष्ठा पाने को सच्ची बातो पर भी आक्षेप करने विद्वानो का काम नहीं।

आओ लौटो वेदो की और

पुनर्जन्म के वैज्ञानिक, सैद्धांतिक और तार्किक विश्लेषण के लिए इस लिंक पर जाकर पिछली पोस्ट पढ़े, 


http://pakhandkhandni.blogspot.in/2015/10/4-5-15-10-1.html
दस्यु स्थानवाचक मनुष्य नहीं, पापी, अधम और दुष्ट लोगो को कहते हैं, दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 2
अब आक्षेपकर्ता के वैदिक ग्रंथो पर लगाए मनमाने आरोपों पर कुछ विचार करते हैं, आक्षेपकर्ता कहता है, काफ़िर मुशरिक आदि जो क़ुरान में शब्द हैं वो गुण वाचक हैं, लेकिन पिछली पोस्ट से आपको काफ़िर और मुशरिक के गुण वाचक होने का ज्ञान हो गया होगा, अब हम बात करते हैं, नास्तिक, दस्यु आदि शब्दों पर, क्योंकि आक्षेपकर्ता का कहना है की वेदो में भी दस्यु शब्द मिलते हैं जो काफ़िर मुशरिक आदि शब्दों का ही परिचायक है, इसलिए काफ़िर मुशरिक तो फिर भी गुण वाचक होने से सही हैं पर दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक हैं, जो मनुष्य को मनुष्य से वैर करना सिखाते हैं।
अब आक्षेपकर्ता न जाने कहाँ से मनगढंत विचार उठाकर ले आते हैं, और काफ़िर मुशरिक शब्द जो अत्यंत घृणास्पद हैं मुस्लिम समाज और खासकर अल्लाह मियां के लिए, उनसे तो प्रेमभाव जागता है, और जो दस्यु आदि शब्द हैं वो मनुष्यता के खिलाफ हैं, आइये विचार करते हैं :
सर्वप्रथम नास्तिक शब्द को देखते हैं :
यदि विचार करके देखा जाए तो इस पूरी सृष्टि में नास्तिक कोई नहीं है, कुछ लोगो ने मिथ्य प्रपंच रच रखा है - क्योंकि नास्तिक उसे कभी नहीं कहते जो ईश्वर को नहीं मानता - और आज सर्वसाधारण ये प्रपंच - मिथ्या जाल फैला रखा है की जो ईश्वर को नहीं मानता वो नास्तिक।
बल्कि ये स्वयं से धोखा है - देखिये नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद की निंदा करे। ईश्वर को मानने न मानने से नास्तिक आस्तिक का कोई लेना देना नहीं है।
वेद निंदकों नास्तिक
ये बहुत ही गूढ़ बात है - क्योंकि ईश्वर - से तात्पर्य एक ऐसी सत्ता से है जो सबसे बड़ी है - सबको नियंत्रित करती है। न्यायकारी है, और पूर्ण है - अपूर्ण नहीं।
अब देखते हैं कुछ तर्क :
हिन्दू : प्राय आस्तिक की श्रेणी में - जो अनेक ईश्वर और देवी देवताओ पर विश्वास रखते हैं।
मुस्लिम : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही शुमार किये जाते हैं - क्योंकि ये एक अल्लाह, उसके अनेक रसूलो, फरिश्तो, क़यामत, जन्नत जहन्नम और हूरो गिल्मो आदि पर विश्वास रखते हैं।
ईसाई : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही गिने जाते हैं। इनमे एक यहोवा, पुत्र ईसा, और पवित्र आत्मा, बपतिस्मा, फ़रिश्ते, बाइबिल, भेड़ बकरी, चरवाहा और ना जाने क्या अनगिनत तमाम बाते।
आदि अनेक मत सम्प्रदाय भी आस्तिक गिने जाते हैं। पर ध्यान देने वाली बात है -
हिन्दू पुराण पढ़ कर मुस्लिमो, ईसाइयो को मलेच्छ आदि बोलकर इनका नाश अपने ईश्वर से करवा कर खुद को धार्मिक और सबसे बड़े आस्तिक कहते हैं।
मुस्लिम कुरआन को पढ़कर - पूरी दुनिया को काफ़िर बताकर उसका गाला काटने को - उसकी बीवी बेटी को हरम में रखने को - उस काफ़िर के माल असबाब को लूटने को - पक्का मजहब और दीन की उम्दा तालीम बताकर जन्नत में हूरो के ख्वाब देखता है क्योंकि यही अल्लाह का बताया सही रास्ता है।
ईसाई - दुनिया के सबसे बड़े तथाकथित और स्वघोषित आस्तिक हैं। इनकी सबसे बड़ी समस्या है की अपने ईसाई बहुल देशो में अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति, मशीन, दवाई सब अपनाएंगे, मगर जब अपनी आस्तिकता को दूसरे देशो में बेचने जाएंगे तब दुनिया की तमाम बीमारियो का इलाज केवल ईसा की प्रार्थना और बपतिस्मा से होना जाता देंगे। खैर ये भी अपने को आस्तिक बताते हैं और अन्य मजहबी लोगो का धर्मान्तरण - मुस्लिमो की तरह करवाना इनका भी मजहबी अधिकार है।
अब समस्या ये है की सबसे बड़ा आस्तिक कौन ? इस चक्कर में सभी तरह के - हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आस्तिक मिलकर लड़ाई, दंगे नफरती शिक्षा आदि करते हैं और तमाम मनुष्यो को तकलीफ होती है, पूरी मानवता शर्मसार होती है, इस बात में कोई संशय नहीं की आज ये मजहबी उन्माद सबसे ज्यादा इस्लामी अनुयायियों में है। तो इस लिहाज से तो ये इस्लामी सबसे बड़े आस्तिक हुए ?
अब बात करे - जो ईश्वर को नहीं मानते - चाहे वो चार्वाक, बौद्धि, जैनी, कोई भी हो - हाँ ये सही है की ये ईश्वर को नहीं मानते मगर क्या ये सच है ?
बौद्धि - ये बुद्ध को ईश्वर या सबसे बड़ी शक्ति अथवा समाधी या मोक्ष प्राप्त करने वाली आत्मा को बुद्ध या ईश्वर मान लेते हैं। यानी यहाँ भी कोई एक बड़ी शक्ति पर विश्वास है।
जैनी : जितने भी तीर्थंकर हुए या द्वित्य श्रेणी व तृतीय श्रेणी के जितने जिन्न होते हैं - उन सबको ईश्वर मान लिया जाता है। क्योंकि जो मरने के बाद निर्वाण प्राप्त कर लेता है वो ईश्वर बन जाता है। यानी यहाँ भी किसी एक अथवा अनेक बड़ी शक्तियों पर विश्वास है।
अब अंत में बात करते हैं चार्वाक की :
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नही है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
चार्वाक भी सुख को सबसे बड़ा मानते हैं, मोक्ष के बराबर - इसलिए ये भी एक बड़ी सत्ता जिसे सुख कहते हैं पर विश्वास करते हैं। क्योंकि सुख को ये चार्वाकी मोक्ष कहते हैं भले ही इसे प्राप्त करने के लिए अनेको मनुष्यो को दुःख प्राप्त हो। ये तथाकथित आस्तिकों के भी आस्तिक हैं। नास्तिक किस बात के ?
वेद निंदकों नास्तिक क्यों कहा जाता है ?
वेद - क़ुरान - बाइबिल - जिंद अवेस्ता भारतवर्षीय इतिहास के सम्बन्ध में इस विषय का महत्व - ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने में युक्तियाँ - आर्य्यावर्त के प्राचीन ऋषि मुनि तथा वर्तमान समय के करोड़ो पौराणिक भी "वेद" को ईश्वरीय ज्ञान मानते आये और मानते हैं, पारसी लोग "जिंद अवेस्ता" को मानते हैं, ईसाइयो का मत है की "बाइबिल" ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक है, मुसलमानो का यह सिद्धांत है की "कुरान" ईश्वरीय ज्ञान है। इन सब के कथन तो ठीक हो नहीं सकते अतः कुछ ऐसी परीक्षाये नियत करनी चाहिए जिन से उक्त कथनो के सत्यासत्य का निर्णय हो सके। अतः ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता सिद्ध हो गयी। अब विवेचनीय है की ईश्वरीय ज्ञान है कौन सा ?
परीक्षाये -
ईश्वरीय ज्ञान का पहला लक्षण यह है की वह अपने आप को ईश्वरीय ज्ञान कहे अर्थात उस के नाम से यह टपके की वह ज्ञान है न की पुस्तक। परमात्मा साकार तो है ही नहीं की वह बैठ कर पुस्तक लिखेगा, वह तो केवल हृदयो में ज्ञान का प्रकाश करता है।
"जिंद अवेस्ता" का अर्थ है "पवित्र लेख" अतः इस शब्दार्थ से सिद्ध होता है कि किसी धर्मात्मा पुरुष ने इसे लिखा है।
"बाइबिल" शब्द यूनानी धातु बिबलिया से निकला है जिस का अर्थ बहुत सी पुस्तके है। बाइबिल के दो भागो के नाम ऑलडटेस्टमेंट और नियुटेस्टामेंट है जो लातिनी धातु "टेस्टर" से निकलता है जिसका अर्थ साक्षी होना है। अतः इन धात्वर्थो से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं की बहुत सी पुस्तको को जमा करके बाइबिल बनाई गयी थी और उस में जिन जिन घटनाओ का वर्णन है उस के लिए साक्षी भी एकत्रित की गयी थी। अस्तु इस के नाम से तो यही सिद्ध होता है की यह मनुष्य की बनाई हुई है, ईश्वर की नहीं। ईश्वर निराकार सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है अतः ईश्वर के विषय में यह नहीं कहा जा सकता की उस ने बहुत सी पुस्तके एकत्रित की अथवा साक्षी ढूंढने गया।
अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक "अल" जिसका अर्थ है "विशेष" दूसरा "कुरान" जो "किरतैअन" धातु से निकला है जिसका अर्थ "पढ़ना" है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का।
"वेद" "विद्" ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है "ज्ञान"। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।
अतः ये सिद्ध है कि वेद किसी पुस्तक का नाम नहीं है, प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो का कल्याणार्थ प्रकाशित किया, इसलिए कहने का तात्पर्य यही है की अनेक लोग जो अनेक प्रकार से ईश्वर को मानते हैं, विश्वास करते हैं, मगर उस ईश्वर के विषय में जानते कभी नहीं, न ही जानना चाहते हैं, क्योंकि वो केवल मान्यता पर विश्वास करते हैं जिससे लड़ाई, झगड़ा, वैमनस्य और मानव समाज में दया के बदले, हिंसा का बोलबाला हो जाता है, यदि यही बात ईश्वर को जानकार, तब मानना लागू हो जाए तो कहीं भी अशांति नहीं दिखेगी चहु और शांति और दया भाव नजर आएगा। इसलिए पहले ईश्वर को जानो, तब मानो, क्योंकि बिना जाने ही मान लेना अन्धविश्वास है, और धर्म में अन्धविश्वास नहीं होना चाहिए, इसीलिए वेद निंदकों नास्तिक कहा जाता है। और ईश्वर का सच्चा स्वरुप वेद ज्ञान के माध्यम से ही जाना जाता है, क़ुरान बाइबिल आदि मजहबी ग्रंथो में केवल इतिहास की बाते हैं, जिससे ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता, अपितु इतिहास का ही अवलोकन हो सकता है वो भी क्षेत्रीय वा प्रांतीय इतिहास, परन्तु वेद आदि मानवी सृष्टि में प्रकाशित होता है, इससे वेद में इतिहास का ज्ञान नहीं अपितु, मानव मात्र के कल्याण का ज्ञान है।
अब दस्यु शब्द को देखते हैं :
आक्षेपकर्ता कहता है, दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक लोगो के लिए प्रयुक्त हैं, जो आर्यावर्त की सीमा से बाहर रहते हैं, उन्हें दस्यु कहा जाता है, और ये गलत है। साथ ही दयानंदीय आस्था को जोड़कर हिन्दू समाज और आर्यो पर वेद का ज्ञान न होने का मनगढंत आरोप भी जड़ दिया, शायद आक्षेपकर्ता का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है क्योंकि जो आर्य समाज का सिद्धांत है, और जो ऋषि ने १० नियम बनाए हैं वे वेद और ऋषि प्रणीत ग्रन्थ आधारित हैं, जिनमे वेद का पढ़ना और पढ़ाना आर्यो का परम धर्म कहा गया है। लेकिन पूर्वाग्रही मानसिकता का बोध करवाते हुए, आक्षेपकर्ता केवल ऋषि दयानंद पर झूठे आरोप ही करते चले गए, शायद उन्हें आर्य समाज की कार्य पद्धति का समुचित अवलोकन नहीं किया तब बिना जाने ही आर्यो पर पुस्तक लिखना और ऋषि पर आक्षेप करना मानसिक दिवालियापन नहीं तो क्या है ?
आर्य दस्यु पृथक जातियों के न थे, दस्यु आर्यो में से थे जो धर्म कर्म न करने से, आचार भ्रष्ट होने से, बहिष्कृत और पतित समझे गए थे। दोनों शब्दों की व्युत्पत्तिये इसी की पुष्टि करती हैं, वेद और उत्तरकालीन वैदिक और संस्कृत साहित्य इसी बात को पुष्ट करता है, पारसियों की जिंदावस्था की भी इसमें साक्षी है। देखिये :
आर्य और दस्यु शब्द का अर्थ निरुक्त और सायण के अनुसार -
आर्य ईश्वर पुत्रः [निरुक्त 6.26) Arya Is The Son of Lord
आर्य ईश्वर पुत्र हैं
दस्युः दस्यतेः क्ष्यर्थादुपदस्पन्त्यस्मिन्नसा, उपदासयति कर्माणि।। [नि० 7.23]
दस्यु क्षयार्थक दस धातु से बनता है, दस्यु में रस रूप जाते हैं [अतः मेघ दस्यु है] और वह वैदिक कर्मो का नाश करता है
He destryos religious ceremonies
यानी धर्म द्वारा स्थापित मर्यादाओ का उल्लंघन करने वाला, नाश करने वाला, दस्यु है। यही बात आक्षेपकर्ता स्वयं भी अपनी पुस्तक में दस्यु शब्द के बाद (दुष्ट) लिखकर मानता है। अतः दुष्ट वो व्यक्ति है जो मर्यादाओ का उल्लंघन करे, दुष्ट को धर्म से जोड़ना ही मूर्खता है, क्योंकि मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
अतः जो इनका नाश करता है, इन मर्यादाओ का उल्लंघन करता है, वह दुष्ट है, इसमें आचार्य सायण का प्रमाण भी है, देखिये :
आर्यम = अरणीयं सर्वेर्गन्तव्य्म। ऋ० 1.130.4
आर्यान विदुषोनुष्टातन।। ऋ० 1.51.8
उत्तमं वर्णे त्रैवर्णिकम्।। 3.34.9
आर्याय यज्ञादि कर्म कृते यजमानाय।। 6.25.2
आर्यार्याणि कर्मानुष्ठातृत्वेन श्रेष्ठानी।। 6.33.3
दस्यु :
दस्यु चोरं वृत्रं वा।। ऋ० 1.33.4
दस्यवः अनुष्ठातृणामुपक्षयितारः शत्रवः।। ऋ० 1.51.8
दासीः कर्मणामुपक्षयित्री र्विश्वः सर्वा विशः प्रजाः 6.25.2
दासाः कर्म हीनाः शत्रवः।। 6.60.6
दस्यवः अव्रताः।। 1.51.8
"दासं वर्ण शूद्रादिकम्" । "दस्यु मव्रतम्"
दासः कर्म करः शूद्रः, आर्यस्त्रै वर्णिकः।। 10.38.3
यास्क और सायण के किये अर्थो में आर्य और दस्यु के जातीयभेद होने की गंध भी नहीं। सभी जगह यज्ञादि कर्म करने वाले त्रैवर्णिक को आर्य्य कहा है और यज्ञादि कर्म न करने वाले, विघ्न डालने वाले, अव्रत व शूद्रादि को दस्यु और दास नाम दिए हैं।
कहने का अर्थ है जो लोकोपकार और जगत के लाभ के लिए किये जाने वाले कर्मो को नहीं करता, विघ्न डालता है, वो दुष्ट यानी दस्यु कहा जाता है।
भारतीय संविधान में भी चोर, ठग आदि शब्द वर्णित हैं, तो क्या प्रत्येक भारतीय चोर, ठग आदि सिद्ध होता है ? नहीं, क्योंकि किसी नागरिक को चोर, लुटेरा, ठग आदि तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कोई नागरिक ऐसा कोई कुकर्म न करे, ठीक ऐसे ही दस्यु उन्हें कहा गया जो अवैदिक कृत्य करते थे।
वैदिक साहित्य तथा संस्कृत साहित्य से तो यह बात और भी पुष्ट हो जाती है की दस्यु आर्यो की संतान थे, जो वैदिक कर्म न करने से पतित और बहिष्कृत समझे गए थे, पाश्चात्य विद्वान भी इसको मानते हैं, दस्यु जातियों में से बहुतसी क्षत्रिय जातीय थी। ऐतरेय, मनु, रामायण और महाभारत इसमें साक्षी हैं :
तस्य ह विश्वामित्र ................................ विश्वामित्रा दस्यूनां भूयिष्ठाः (ऐ० ब्रा० 7.18)
(सायण) विश्वामित्र ऋषि के एक सौ पुत्र थे, मधुच्छन्दस, प्रभृति पचास बड़े और पचास छोटे। जो बड़े थे उन्होंने कहना नहीं माना। विश्वामित्र ने उनको कहा की तुम्हारी संतान चाण्डलादी नीच जातियों की हो जाए। वही अंधृ, पुण्ड्र, शबर, पुलिंद, मुतिव आदि जातीय हैं, दस्यु जातियों में से बहुत सी विश्वामित्र की संतान हैं।
अतः सिद्ध है की दस्यु कर्म से हीन होकर, अमर्यादित जातियां हुई, जो भारत से बाहर जाकर बसी, इन्हे ही दस्यु कहा गया।
द्विज लोग दस्यु कैसे बन गए, इस विषय में मनु महाराज कहते हैं :
शनकै स्तुक्रियालोपादिमाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्मणादर्शनेन च ।। मनु १०:४३
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः । । १०.४४ । ।
मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः । । १०.४५ । ।
पौण्ड्र आदि १२ क्षत्रिय जातीय वैदिक क्रियाए भुला देने से, और ब्राह्मण लोगो से सम्बन्ध टूट जाने से शनै शनै शूद्र हो गयी और यही जातीय दस्यु हैं चाहे म्लेच्छ (विदेशी) भाषा बोले चाहे आर्यो की भाषा।
महाभारत 12.136.1 "दस्युनां निष्क्रियानां च क्षत्रियो हर्तु मर्हति।।
तस्मादपयद्देहाददान मश्रद्दधान भयजमा नमाहु रासुरोबत इति (छा० उ० अ० ८ ख. 8.5)
महाभारत शान्तिपर्व अध्याय १९८ में भीष्म कहते हैं।
हे राजन मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हु जो उत्तर दिशा में मलेच्छों में हुई। मध्य देश का कोई ब्राह्मण किसी ब्राह्मण और वेदज्ञों से रहित पर समृद्ध ग्राम में भिक्षा लेने के लिए घुस गया। वहां एक धनी, धर्मात्मा, सच्चा, दानी वर्णव्यवस्था जानने वाला दस्यु रहता था। उसके घर पर जाकर ब्राह्मण ने भिक्षा मांगी। वह गौतम नामक ब्राह्मण मलेच्छ में रहते रहते उनके सन्निकर्ष से उन जैसा बन गया। उसी ग्राम में एक और ब्राह्मण आ निकला, और पहले ब्राह्मण को देख कर कहने लगा की तू तो मध्य देश का कुलीन ब्राह्मण था पर उससे दस्यु कैसे बन गया।
इस कथा से स्पष्ट हो जाता है की दस्यु कोई पृथक नस्ल के न थे आर्यो में से ही पतित लोग, या धार्मिक लोग भी जो पतितो के संग से पतित हो जाते थे, दस्यु कहानी लगते थे।
अब एक और दृष्टान्त लीजिये, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा की किस प्रकार ब्राह्मण माता पिता की संतान भ्रष्टाचारी होने से राक्षस यातुधान कहाने लगती है। पुलस्त्य ब्रह्मषि थे, द्विज थे (पुलस्त्यो नाम ब्रह्मषि ; पुलस्त्यो यत्र स द्विजः) उनका पुत्र विश्रवा भी उन जैसा योग्य था। पर विश्रवा के पुत्रो में से रावण, कुम्भकर्ण, भ्रष्टाचारी, अधार्मिक होने से राक्षस, दस्यु, अनार्य, यातुधान कहाने लगे, पर छोटा पुत्र विभीषण धर्मात्मा होने से आर्य ही रहा। ये तो रामायण की कथा से ही सिद्ध हो जाता है, की आर्यावर्त की सीमा से बाहर भी जो दस्यु, कर्म से द्विज और वेद धर्म के पालनहारी हो, वे भी आर्य ही कहाते थे, और आज भी ऐसा ही है, क्योंकि पाप, भ्रष्टाचार और अवैदिक कर्म से ही दस्यु कहाते हैं।
अतः आक्षेपकर्ता का आरोप की वेद में दस्यु, नास्तिक मलेच्छ आदि आर्यावर्त की सीमा से बाहर के लोगो को कहते हैं, ये खंडित होता है, मगर जो काफ़िर, मुशरिक आदि शब्द अल्लाह मियां द्वारा मनुष्य में मनुष्य की लड़ाई और झगड़ा, वैमनस्य फैलाते हैं, उनपर आक्षेपकर्ता का मौन या दृढ समर्थन, इंसानियत के लिए ठीक प्रतीत नहीं होता, अतः आक्षेपकर्ता को ऐसी विकृत मानसिकता और मनुष्य की मनुष्य में वैमनस्य फैलानी वाली घृणित सोच से बचना चाहिए।
आओ लौटो वेदो की ओर
नमस्ते

Wednesday, October 21, 2015

काफ़िर, नास्तिक और धर्म के आलोक में आस्तिक Part 1

सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा पुस्तक के इस अध्याय में आक्षेपकर्ता, महर्षि दयानंद पर पुनः एक कुतर्क सहित आरोप लगाने की झूठी कोशिश करते हैं की सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद क़ुरान की शिक्षा जो शांति, भाईचारे और सहिष्णुता की समर्थक है, ऐसी आयतो पर सत्यार्थ प्रकाश में काफिरो को हिन्दुओ से जोड़कर दर्शाया गया है, जिससे कुरान की आयते हिन्दू समाज के प्रति आक्रामक और अपमानजनक सिद्ध होती हैं ऐसा बताया गया है। इसके लिए आक्षेपकर्ता ने पुस्तक में इतिहास से जुड़े कुछ स्वघोषित उल्लेख भी प्रस्तुत किये हैं, ताकि इस्लाम और इस्लाम की शांतिपूर्ण शिक्षा का प्रस्तुतिकरण किया जा सके।
मगर खेद की आक्षेपकर्ता, इस अध्याय में भी पूरा सच नहीं बता पाये, क्योंकि जो पूरा सच बता देवे तो क़ुरान का शांति और भाईचारे का सिद्धांत ही खंडित हो जाएगा, क्योंकि इस्लाम की जो नींव रखी गयी, वो नींव स्वयं में दूसरे धर्मो, जातियों और सम्प्रदायों की धार्मिक भावनाओ, और मान्यताओ को कुचलकर, दबाकर, खून करकर, बलात्कार करते हुए रखी गयी, ऐसा हम नहीं स्वयं इतिहास बताता है, आइये एक एक कर सभी बातो पर विचार रखते हैं, देखते हैं आक्षेपकर्ता की सच्चाई और इस्लाम तथा मुहम्मद साहब की शांतिपूर्ण शिक्षा का वास्तविक आधार क्या है ?
सबसे पहले काफ़िर शब्द और इसका अर्थ समझते हैं जो आक्षेपकर्ता अपनी पुस्तक में चाहते हुए भी न समझा पाये या कहे की इस अर्थ को गोल गोल घुमा गए, देखिये काफ़िर का अर्थ :
काफ़िर एक संज्ञा है, इसका बहुवचन कुफ्र है, सरल शब्दों में इसका अर्थ नास्तिक है, लेकिन यदि विस्तार से समझा जाए तो इसका अर्थ है इंकार करने वाला, श्रद्धा न रखने वाला, विश्वास न करने वाला आदि, लेकिन यहाँ किसका इंकार, अश्रद्धा और विश्वास नहीं किया जा रहा वो समझना नितांत ही आवश्यक है। काफ़िर एक ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो एक अल्लाह नामी खुदा को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उस अल्लाह का आखरी रसूल, पैगम्बर न माने, वो काफ़िर है।
यहाँ कुछ समझने की बात है, वो ये है की ईश्वर है, उसको पूरी दुनिया में अनेको नामो से पुकारा जाता है, क्योंकि ईश्वर के अनेको नाम हैं, अनेक सभ्यताएँ, संकृतिया उस ईश्वर को अनेको नामो से पुकारती हैं, यानी वो सभी सभ्यताए ईश्वर को मानती हैं, लेकिन आपको आश्चर्य होगा की ये सभी संस्कृतिया और सभ्यताए इस्लामिक दृष्टिकोण से नास्तिक हैं, जाहिल हैं, मुर्ख हैं, पाखंडी हैं, अपवित्र हैं, क्योंकि वो अल्लाह को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उसका आखरी पैगम्बर नहीं मानती।
आइये आपको प्रमाण दिखाते हैं :
और तू अल्लाह के सिवा किसी को भी न पुकार जो तुझे न तो कोई लाभ पंहुचा सकता है और न ही कोई हानि ही। यदि तू ने ऐसा किया (अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा) तो फिर निश्चय ही तेरी गणना अत्याचारियो में होगी।
(क़ुरान १०:१०७)
पूरी दुनिया के सभी मनुष्य, जब भी विपदा में हो, परेशान हो, निराश हो अथवा हताश हो, तो उस ईश्वर को से ही सहायता मांगते हैं, भले ही हम किसी भी नाम से ईश्वर को पुकारे मगर यहाँ क़ुरान में खुद अल्लाह मियां ने ही साफ़ साफ़ बता दिया है, की जो भी अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा तो वो अत्याचारियो में होगा, क्योंकि अल्लाह के सिवा कोई नहीं जो सहायता कर सके। क्या ये अल्लाह के कथन किसी ईश्वरीय ग्रन्थ में उल्लेखित हो सकते हैं ? आगे देखिये :
और जब एक ही अल्लाह का वर्णन किया जाता है तो जिन लोगो का क़यामत पर ईमान नहीं होता उन के दिल (ऐसे उपदेश से) घृणा करने लग जाते हैं तथा जब उन (मूर्तियों) का वर्णन किया जाता है जो अल्लाह के मुकाबिले में बिलकुल तुच्छ हैं, तो वे अचानक प्रसन्न होने लगते हैं।
(क़ुरान ३९:४६)
अनेको सभ्यताओ में मूर्तियों द्वारा ईश्वर को पाने की सीढ़ी लगायी जाती है, ये प्रत्येक सभ्यता संस्कृति की अपनी सोच है, लेकिन किसी की आस्था (मूर्ति) को तुच्छ कहना, किसी की आस्था का मजाक बनाना, क्या ये क़ुरान में अल्लाह का कलाम हो सकता है ? क्या ये सभ्य शैली है ?
क्योंकि उन्होंने अल्लाह की उतारी हुई वाणी को पसंद नहीं किया है। अतः अल्लाह ने भी उनके कर्मो को अकारथ कर दिया।
(क़ुरान ४७:१०)
अब देखिये, यदि आप अल्लाह की वाणी यानी क़ुरान के अनुसार, मूर्ति पूजा करते हैं, तो आपके सारे कर्म अकारथ कर दिए हैं, क्योंकि आप क़ुरान की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे, क्या ये कहीं से भी ईश्वरीय आज्ञा लगती है ? ये तो किसी दुराग्रही के वचन लगते हैं की यदि क़ुरान की आज्ञा न मानी तो तेरे सारे कर्म निष्क्रिय होंगे, क्या अल्लाह मियां ऐसा करके ही मुस्लिम और हिन्दू समाज में विद्रोह उतपन्न करना चाहेंगे ? मुझे तो किसी शातिर व्यक्ति की चाल लगती है जो अल्लाह और मुहम्मद साहब के नाम पर क़ुरान में ये आयत जोड़ी गयी।
उपरोक्त आयतो को आपने ध्यान से पढ़ा होगा तो समझे होंगे की क़ुरान में स्वयं अल्लाह मियां ही काफ़िर और मोमिन (मुस्लिम) में भेद प्रकट करता है, अब हम आपको दिखाते हैं, की मोमिन कौन है, यहाँ इस बात को समझाना नितांत आवश्यक है, क्योंकि बिना मुस्लिम का अर्थ समझे आप काफ़िर को नहीं समझ सकते है, देखिये :
जो कुछ भी इस रसूल पर उसके रब की और से उतारा गया है उस पर वह स्वयं भी और दूसरे मोमिन भी ईमान रखते हैं। ये सब के सब अल्लाह और उसके फरिश्तो, एवं उसकी किताबो तथा उसके रसूलो पर ईमान रखते हैं (और कहते हैं की) हम उस के रसूलो में से किसी में भी कोई अंतर नहीं करते तथा यह भी कहते हैं की हम ने (अल्लाह का आदेश) सुन लिया है और हम (दिल से) उसके आज्ञाकारी बन चुके हैं। (ये लोग प्रार्थना करते हैं की) हे हमारे रब ! हम तुझ से क्षमा मांगते हैं और हमे तेरी ओर ही लौटना है।
(क़ुरान २:२८६)
अब यहाँ ध्यान से समझिए की मुस्लमान आखिर कौन हैं :
1. जो केवल एक अल्लाह पर विश्वास करता हो।
2. जो मुहम्मद साहब को आखरी पैगम्बर मानता हो।
3. जो क़ुरान को अंतिम ईश्वरीय वाणी मानता हो।
4. जो अनेको फरिश्तो (जिब्रील, मिखाइल आदि) पर ईमान रखता हो।
5. जो आख़िरत (क़यामत) के दिन दुबारा जिन्दा होना मानता हो।
6. जो जन्नत और जहन्नम पर विश्वास रखता हो।
7. जो मूर्ति भंजक (मूर्ति तोड़ने वाला) हो नाकि मूर्ति पूजक।
यहाँ यदि ध्यान से समझा जाए तो आप पाएंगे, मुस्लमान होने के लिए ये आवश्यक शर्ते (नियम) मानने यानी उपरोक्त पर विश्वास करना नितांत आवश्यक है, तभी आप मुस्लमान हैं, अब आप स्वयं सोचिये, जो भी व्यक्ति मुस्लमान नहीं यानी जो उपरोक्त पर विश्वास नहीं करता वो क्या है ?
हम आपको समझाने का प्रयास करते हैं, इस्लाम, क़ुरान और मुहम्मद साहब द्वारा इंसानो में जो बंटवारा किया गया है, वो देखिये :
क़ुरान में ईसाई समाज को नसारा और यहूदियों को यहूद कहा गया है, यहाँ तक की अल्लाह इनसे इतनी घृणा करता है की इन्हे अत्याचारी कहता है और मुसलमानो को इनसे सहायता न लेने तक का स्पष्ट वर्णन क़ुरान में अंकित करता है, देखिये :
हे ईमान लाने वालो ! यहूदियों और ईसाइयो को अपना सहायक न बनाओ (क्योंकि) उनमे से कुछ लोग कुछ दुसरो के सहायक हैं और तुम में से जो भी उन्हें अपना सहायक बनाएगा निस्संदेह वह उन्ही में से होगा। अल्लाह अत्याचारियो को कदापि (सफलता का) मार्ग नहीं दिखाता।
(क़ुरान ५:८२)
अब देखिये, यहाँ क़ुरान में स्वयं अल्लाह मिया कितनी शांति और भाईचारे की बात सिखा रहे हैं, क्या ये अल्लाह का कलाम है ? जब अल्लाह मियां स्वयं मनुष्यो में ही घृणा और पक्षपात करते हैं तब उनके ईमान वाले ऐसी बातो का इंकार कैसे करे ? क्या ऐसी शिक्षा से भाईचारा जागता है ? अब यहाँ विचारणीय बात ये भी है की ईसाई और यहूदियों के लिए "काफ़िर" शब्द प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि ईसाई और यहूदी भी "अहले अल किताब" की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि अल्लाह ने इस समाज को भी पवित्र किताब प्रदान की थी, इसलिए ये काफ़िर तो नहीं, मगर फिर भी अल्लाह की नजर में इनसे दोस्ती करना मुस्लमान और उसके ईमान के लिए सजा बराबर है।
अब दिखाते हैं, मुशरिक किसे कहते हैं, देखिये :
मुशरिक शब्द क़ुरान की ४५ आयतो में ५४ बार आया है (मोहसिन खान भाष्य अनुसार), मुशरिक की परिभाषा :
एक ऐसा व्यक्ति, जो अनेको देवी देवताओ पर विश्वास रखता है, भले ही वो एक सर्वोच्च ईश्वर को भी मानता हो, या न मानता हो, लेकिन अनेको देवी देवताओ की पूजा करता हो, उसे अरबी भाषा में मुशरिक कहते हैं, और ऐसे लोगो के प्रति अल्लाह मियां क़ुरान में क्या बयां करते हैं वो देखिये :
हे मोमिनो (मुसलमानो) ! वास्तव में मुशरिक गंदे (और अपवित्र) हैं। (क़ुरान ९:२८)
क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा करना अपवित्र कार्य है ? क्या कोई व्यक्ति अपनी संस्कृति के अनुसार पूजा उपासना नहीं कर सकता ? क्या यही इस्लामी स्वतंत्रता है ? क्या केवल अपनी संस्कृति अनुसार देवी देवताओ की पूजा करने से मनुष्य गन्दा, नापाक और अपवित्र हो सकता है ? क्या ये आयत हिन्दुओ की सभ्यता और संस्कृति पर प्रतिघात नहीं करती ? क्या ऐसी आयतो से वैमनस्य नहीं फैलता ? क्या हिन्दू समाज देवी देवताओ की पूजा उपासना नहीं करता ? क्या ये आयत मुस्लिम समाज द्वारा हिन्दुओ को अपवित्र और नापाक नहीं कहलवाती ?
अब आपको बताते हैं, शिर्क करने वाले काफ़िर के बारे में, देखिये :
मूर्ति पूजा करना, या देवी देवताओ की पूजा करना, अथवा अल्लाह के साथ कोई अन्य उपास्य बनाना, या अल्लाह के अतिरिक्त किसी और नाम से ईश्वर को पुकारना शिर्क है, शिर्क के अनेको प्रकार हो सकते हैं, लेकिन जो सबसे भयंकर और जिसको माफ़ नहीं किया जा सकता वो शिर्क है, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और ईश्वर को पुकारना अथवा अल्लाह के साथ अन्य किसी देवी देवता को पूजना, ये सबसे बड़ा शिर्क है, और इसे कभी माफ़ नहीं किया जाएगा, देखिये :
निसंदेह अल्लाह (यह बात) कदापि क्षमा नहीं करेगा की किसी को उसका साझी बनाया जाए, परन्तु जो पाप इससे से छोटा होगा उसे जिस के लिए चाहेगा क्षमा कर देगा और जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया तो समझो की उसने बहुत बड़ी बुराई की बात बनाई
(क़ुरान ४:४९)
अब देखिये, खुदा की खुदाई, की यदि अल्लाह को नहीं माना, या अल्लाह के साथ किसी और को साझी बनाया तो ये सबसे बड़ा गुनाह है, यानी अल्लाह मियां को गुस्सा, घृणा, द्वेष आदि गुण भी हैं, और क्रोध भी आता है, क्या ये अल्लाह मियां का लिखा हो सकता है ? जो अल्लाह मियां परम दयालु अपने आप को क़ुरान में बताते वो ऐसी आयत क्यों देंगे ? निश्चय ही किसी का शरारत है, और ये आयत क्या अल्लाह मियां की हिन्दुओ से घृणा और द्वेष को सिद्ध नहीं करती ? क्योंकि हिन्दू समाज ईश्वर के साथ साथ अनेको देवे देवताओ की पूजा उपासना करता है, तो क्या मुस्लिम समाज ऐसी आयतो को पढ़कर हिन्दुओ से प्यार करेगा ?
क्या चोरी, डकैती, लूटमार, बलात्कार, हिंसा और हत्या आदि अनेको पापकर्म, छोटे हैं जिन्हे माफ़ कर दिया जाएगा ? और केवल एक अल्लाह को नहीं मानना ऐसा बुरा कर्म की वो माफ़ नहीं किया जाएगा ? क्या ये आयत अल्लाह की हो सकती है ?
इस्लाम के अनुसार मूर्तियों का तोडना जायज़ है, और यही सच्चाई है, दीन है, और यही अल्लाह की नजर में धर्म है, देखिये :
मक्का में पैगम्बर दाखिल हुए। काबा में तीन सौ साठ मुर्तिया मौजूद थी। उन्होंने (पैगम्बर) ने उन मूर्तियों पर अपने हाथ में मौजूद डंडे से जोरदार प्रहार करते हुए कहा "सत्य आ गया है तथा असत्य भाग गया है और असत्य तो है ही भाग जाने वाला"
(सही मुस्लिम, किताब १९, हदीस ४३९७)
और काबा के पास उन की नमाज केवल सीटियां और तालियां बजाने के सिवा कुछ कुछ नहीं। सो हे अधर्मियों ! अपने इंकार के कारण अज़ाब का स्वाद चखो
(क़ुरान ८:३६)
कदापि नहीं, यदि वह बाज़ न आया तो हम छोटी पकड़कर घसीटेंगे (१५)
झूठी ख़ताकार चोटी (१६)
(क़ुरान सूरह ९६)
काबा में हिन्दू विधि विधान से ही कभी मूर्ति पूजा आदि होती थी, लेकिन मुहम्मद साहब ने काबा में मौजूद ३६० मूर्तियों को तोड़ डाला, और वहां (काबा) को मंदिर से मस्जिद में तब्दील कर डाला, उपरोक्त क़ुरानी आयतो को पढ़कर निष्कर्ष निकाला जा सकता है की कभी किसी समय पर अरब के पगनो द्वारा आज के ही हिन्दुओ सामान मंदिरो में मूर्ति पूजा तथा पूजा पद्धति होती थी, और वहां पंडितो पुजारियों का चोटी रखना भी सिद्ध करता है, अतः क़ुरान की इस आयत से निष्कर्ष निकलता है की :
और हमने यह भी निर्णय किया था की मस्जिदे सदैव अल्लाह ही का स्वामित्व ठहराई जाए। अतः हे लोगो ! तुम उनमे उसके सिवा किसी को मत पुकारो।
(क़ुरान ७२:१९)
हिन्दुओ को मंदिरो से अथवा अन्य इबादतगाहों से केवल अल्लाह को ही पुकारना चाहिए, और यही इस्लामी नजरिये से जायज़ है, नहीं तो हिन्दू समाज काफ़िर, मुशरिक तो है ही।
उपरोक्त वर्णित क़ुरानी आयतो तथा इस्लामी हदीसो से स्पष्ट ज्ञात होता है की जो अल्लाह को नहीं मानता, या जो अल्लाह के साथ अनेको देवी देवताओ को भी पूजता है, अथवा जो मूर्ति पूजा करता है, वे सभी लोग पापी हैं, अपवित्र हैं, नापाक हैं, और वो धर्म पर नहीं हैं क्योंकि मूर्तिपूजक शैतान की पूजा करते हैं।
अतः ये सिद्ध है की क़ुरानी आयतो में ये वर्णन इतिहास सूचक नहीं है, बल्कि जब तक इस दुनिया में इस्लाम के मुताबिक कुफ्र है, शिर्क है, नापाक और अपवित्र मूर्तिपूजक हैं तब तक इस्लाम का जिहाद चलते रहना चाहिए। यही बात क़ुरान में अल्लाह मियां भी फरमाते हैं :
“उन्हें मार डालो जहाँ पाओ और उन्हें निकाल दो जहां से उन्होंने तुम्हे निकाला |”
(क़ुरान २:१९१)
“कुछ मुसलमान मित्र यहाँ कहेंगे की अल्लाह ने उन लोगो को मारने को कहा है जिन्होंने खुद लड़ाई की और ईमान वालो को घर से निकाला | लेकिन अगली आयत से सत्य का पता चलता है कि उन्हें मारने का उद्देश्य क्या है |
तुम उन से लड़ो की कुफ्र न रहे और दीन अल्लाह का हो जाए अगर वह बाज आ जाए तो उस पर जयादती न करो |”
(क़ुरान २:१९३)
आज भी इस्लामिक नजरिये से कुफ्र और शिर्क दुनिया में फैला हुआ है, इसीलिए दारुल हर्ब (काफिरो द्वारा अधिकृत देश) को दारुल इस्लाम (इस्लामी शरिया द्वारा अधिकृत देश) में बदलने की पुरजोर कोशिश जिहाद द्वारा की जा रही है, इसी कोशिश में आईएसआईएस, अल-कायदा, लश्कर आदि संगठन पुरे विश्व में आतंक फैलाये जा रहे हैं, कुछ मुस्लिम इस बात का खंडन करते हैं की ये इस्लामी विचारधारा नहीं है, लेकिन यदि क़ुरान की शिक्षा शांतिपूर्ण ही हैं तो इन कट्टरपंथियों की सोच का जिम्मेदार कौन है ? क्या ये कट्टरपंथी कोई और क़ुरान पढ़ रहे हैं, यदि हाँ, तो क्या ये मुस्लिम समुदाय की ही जिम्मेदारी नहीं की उन्हें क़ुरान और इस्लाम की सच्ची शिक्षा से अवगत करवाये ?
अब कुछ अन्य इस्लामी और क़ुरानी शिक्षा जो शांति, सौहार्द और भाईचारे की प्रेरणा देती है क्योंकि अल्लाह की नजरो में धर्म केवल और केवल इस्लाम है। इसलिए वे लोग जो गंगा जमुनी तहजीब की वकालत करते हैं, उन्हें क़ुरान की इन आयतो पर भी अपने विचार रखने चाहिए :
और जो मनुष्य इस्लाम के सिवा किसी दूसरे धर्म को अपनाना चाहे तो (वह याद रखे कि) वह धर्म उससे कदापि स्वीकार न किया जाएगा और वह परलोक में हानि उठाने वालो में से होगा।
(क़ुरान ३:८६)
वे अल्लाह को छोड़कर निर्जीव चीज़ो के सिवा किसी को नहीं पुकारते बल्कि वे उद्दंडी शैतान के सिवा और किसी को नहीं पुकारते
(क़ुरान ४:११८)
अब कुछ लोग सवाल करेंगे की आर्य समाज भी तो मूर्ति पूजा विरोधी है, तो इस्लाम की द्वारा जो किया गया वो सही है, यहाँ उन्हें ध्यान रखना चाहिए और सोचना चाहिए की आर्य समाज ने कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्रकार की मूर्ति को तोडना, फोड़ना जायज़ नहीं बताया, न ही मंदिरो को तोड़कर उन पर मस्जिद बनाने का समर्थन ही किया, उलटे महर्षि दयानंद ने कहा था, की वो मूर्तियों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन लोगो की जो जड़ बुद्धि है, उसको तोड़कर चेतन सोच करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो केवल वेद ज्ञान द्वारा संभव है। लेकिन मुहम्मद साहब की क़ुरानी शिक्षाओ के कारण, जो मूर्तियां तोड़ी गयी, और जो मुहम्मद साहब ने पैगम्बर अब्राहिम का अनुसार करते हुए मूर्तियों को तोडा, वो ही चित्रण कुछ महीनो पहले सीरिया में आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा, सीरिया में देखा गया, जहाँ अनेको प्राचीन संस्कृति के बुतो को अकारण ही तोड़ दिया गया। क्या अब भी मुस्लिम समाज यही कहेगा की आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा किये गए कार्य इस्लामी शिक्षा से प्रेरित नहीं ?
ये केवल कुछ ही बताया है, अब पाठकगण स्वयं विचार करे की महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क्या गलत लिखा ? क़ुरान के अनुसार ही जो काफ़िर और मुस्लिम, तथा हिन्दू समाज की स्थति क़ुरान के नजरिये से ही महर्षि दयानंद ने प्रकट की थी, फिर भी आक्षेपकर्ता सच्चाई की जगह दुराग्रह व पूर्वाग्रह से ग्रसित हो नकारते चले गए। अब अगले लेख में नास्तिक और आस्तिक के बारे में विचार करेंगे।
आओ लौटो वेदो की और

Tuesday, October 20, 2015

महर्षि दयानंद द्वारा क़ुरान की समीक्षायें, कुरान की मूल प्रति में छेड़ छाड़, व्याकरण की गड़बड़ी और क़ुरान का वैज्ञानिक स्तर .... Part 2

अब आक्षेपकर्ता कहते हैं की क़ुरान में पिछले १४०० साल से किसी अरबी विद्वान ने कोई गलती नहीं पकड़ी, भाषा संशोधन की आवश्यकता ही महसूस न हुई, इस दावे को भी जरा ध्यान से समझना चाहिए, देखिये, अरबी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए हैं, उनका नाम था "जलाल अल-दीन अल-सुयूती" इन्हे "इब्न अल-क़ुतुब" अर्थात "किताब का बेटा" नाम से भी जाना जाता है, आप मिस्र के धार्मिक विद्वान, कानूनी विशेषज्ञ और शिक्षक, तथा मध्य युग में इस्लामी धर्मशास्त्र विषयों पर विस्तृत तथा विविधतापूर्ण बेबाकी से लिखने वाले अरब लेखकों में से एक थे। आपको काहिरा में बेबार्स की मस्जिद में १४६२ में नियुक्त किया गया था। आपने जगप्रसिद्द रचना "द एतेक़ान" के दूसरे भाग में लगभग १०० पृष्ठों का निर्माण किया है, हम वहीँ से कुछ कुरान पर की गयी टिप्पण्यो से अवगत करवाते हैं, देखिये :

"द इत्तेकान" पुस्तक में "क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द" जो अत्यंत कठिन हैं, तथा शास्त्रीय अरबी भाषा की शब्दावली और इन अरबी शब्दों की अभिव्यक्ति भी अरब में मौजूद नहीं थी, क़ुरान में मौजूद भाषाओ की विविधता के चलते ही, विषय को समझाते हुए शफी लिखते हैं :

"No one can have a comprehensive knowledge of the language except a prophet" (Itqan II: p 106)

"भाषा का व्यापक ज्ञान नबी के अतिरिक्त और किसी को नहीं हो सकता"

अब यहाँ कुछ सवाल उतपन्न होते हैं, जब क़ुरान में ही अल्लाह मियां कहते हैं की ये क़ुरान सरल अरबी में दिया जाता है ताकि अरब वाले इससे शिक्षा प्राप्त कर सके (क़ुरान ४४:५९), तो जब क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द, या ऐसे शब्द जिनका ज्ञान खुद अरब वालो को नहीं, यहाँ तक कि मुहम्मद साहब के साथियो तथा रिश्तेदारो तक को नहीं पता था, तब ये क़ुरान कैसे सरलता से अरब के मुस्लिम बंधू समझ सकेंगे ? शफी खुद मान रहे की जो क़ुरान में विदेशी शब्द आये हैं, उनकी जानकारी मुहम्मद साहब के अतिरिक्त और किसी को नहीं, तब ऐसे में यदि अरब के जानकार मुस्लिम इस पुस्तक का ज्ञान न समझ पाये तो अरब से बाहर के लोग जो अरबी भाषा जानते तक नहीं, वो कैसे समझ पाएंगे ? क्या इससे सिद्ध नहीं होता की क़ुरान केवल अरब वालो के लिए ही थी ?

इस विषय पर "दी इत्तेकान" क्या कहते है, वह भी देखिये :

"It is utterly inadmissible for the Qur’an to be read in languages other than Arabic, whether the reader masters the language or not, during the prayer time or at other times, lest the inimitability of the Qur’an is lost.

यह पूरी तरसे से नकारने योग्य है की क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा या भाषाओ में पढ़ा जाए। चाहे पढ़ने वाला भले ही भाषाओ का विद्वान हो या न हो, चाहे प्रार्थना के समय पढ़ी जाए व किसी अन्य समय, यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाषा में पढ़ा जाए तो वो अनुकरणीय नहीं है, अर्थात अमान्य है।

यही कारण है की गैर-अरब व्यक्ति, क़ुरानी आयतो को केवल रटते हैं, वो भी बिना समझे क्योंकि ये अरबी में पढ़ना और बोलना ही मान्य है। इसी विषय पर बिलकुल यही विचार प्रकट करने वाले एक और इस्लामी विद्वान डॉ शालाबी अपनी पुस्तक "द हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ" पृष्ठ ९७ पर इसी बात को लिखते हुए कलम आगे चलाते हैं की :

"If the Qur’an is translated into a non-Arabic language, it will lose its eloquent inimitability. The inimitability is intended for itself. It is permissible to translate the meaning without being literal."

यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में भाषांतरित (भाष्य) किया जाए तो, क़ुरान अपनी मूल भाषाई सुंदरता, खो देगी, इसका अनुकरण केवल केवल अरबी भाषा ही है। ये भाष्य कुछ ऐसा ही होगा जैसे मूल शब्द के सटीक अर्थ रहित भाषांतर (भाष्य) की अनुमति होती है।

अब ऐसे में, आक्षेपकर्ता का कहना की महर्षि दयानंद को अरबी का ज्ञान नहीं था, इसलिए जो सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान पर आक्षेप किये वो गलत हैं, तो महर्षि पर दोषारोपण करने से पहले, कृपया उन भाष्यकारों पर आरोप खड़े करे, जिन्होंने क़ुरान का हिंदी में भाष्य किया, वैसे सभी जानते हैं की क़ुरान का लगभग दुनिया की सभी भाषाओ में अनुवाद किया जा रहा है, लेकिन इस्लामी विद्वानो की धारणा है की यदि क़ुरान को भाषांतर किया तो इसकी मूल भाषाई सुंदरता खत्म हो जायेगी, इसलिए इसका भाष्य नहीं किया जा सकता, वहीँ क़ुरान में मौजूद शब्द भी ऐसे हैं जिन्हे खुद अरब के लोग नहीं जानते, न ही वो शब्द अरबी व्याकरण में मिलते हैं, तब कैसे उनका अर्थ भाषांतर किया जाएगा ? इसका सीधा सीधा अर्थ तो यही है की क़ुरान का भाष्य नहीं किया जा सकता क्योंकि ये कुरान केवल अरब देश के लिए ही थी, लेकिन जो इसका भाषांतर कर रहे शायद वो क़ुरान की अन्तर्भावना और अल्लाह के ज्ञान से खिलवाड़ कर रहे हैं, फिर भी आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद को ही दोष देते हैं, क्या ये पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता नहीं ?

अब जो कहते हैं की क़ुरान में व्याकरण गलती और आज तक फेरबदल नहीं हुआ उसपर विचार करते हैं :

डॉ अहमद शालाबी, इस्लामी इतिहास और सभ्यता के विद्वान प्रोफेसर अपनी पुस्तक "दी हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ" पृष्ठ ४३ पर क्या लिखते हैं उसे देखिये :

"The Qur’an was written in the Kufi script without diacritical points, vocalization or literary productions. No distinction was made between such words as ‘slaves’, ‘a slave’, and ‘at’ or ‘to have’, or between ‘to trick’ and ‘to deceive each other’, or between ‘to investigate’ or ‘to make sure’. Because of the Arab skill in Arabic language their reading was precise. Later when non-Arabs embraced Islam, errors began to appear in the reading of the Qur’an when those non-Arabs and other Arabs whose language was corrupted, read it. The incorrect reading changed the meaning sometimes."

क़ुरान मूलतया कूफी लिपि में लिखा गया था जो स्वरों के विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ), स्वरोच्चारण तथा साहित्यिक प्रस्तुतियों से रहित था। "गुलामो", "एक गुलाम", …… आदि शब्दों में कोई भेद, अंतर नहीं रखा गया था। क्योंकि एक अरब व्यक्ति तो अरबी पढ़ने में कौशल प्राप्त था इसलिए सटीकता से पढ़ लेता था। लेकिन जब अरब के बाहर के लोगो ने इस्लाम स्वीकार किया, और वे अरब के लोग जिनकी अरबी ठीक न थी इन्होने मूल क़ुरान का पाठ किया तब क़ुरान में विसंगतियां उत्पन्न हुई। गलत तरीके से पढ़ने के कारण कभी कभी कुरान के मूल पाठ का अर्थ भी बदल जाता था।

बिलकुल यही वक्तव्य ताहा हुसैन, "ताहा हुसैन" पृष्ठ १४३ अनवर जमाल जुन्दी द्वारा में लिखित पाया जाता है।

इसी प्रसंग में डॉ अहमद उन व्यक्तियों के नाम बताते हैं जिन्होंने स्वरोच्चारण और विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) का आविष्कार किया और इन्हे मुहम्मद साहब की मृयुपरांत कई वर्षो बाद क़ुरानी लेख में प्रयुक्त किया जैसे की अबु अल-अस्वद अल दुआली, नस्र इब्न असीम और अल खलील इब्न अहमद। इसी पृष्ठ पर और विस्तार से समझाते हुए वह लिखते हैं की

"इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना, कोई भी व्यक्ति सूरह अत-तौबा की आयत ३ का अर्थ कुछ इस प्रकार समझता है "God is done with the idolaters and His apostle— free from obligation to the idolaters and His apostle" जबकि इसका सही अर्थ है "God and His apostle are done with the idolaters—free from further obligation to the idolaters"

अब यहाँ सवाल उठता है की यदि क़ुरान सरल अरबी और शुद्ध व्याकरण में उतरी तो इतनी विसंगतियां क्यों उत्पन्न हुई ? इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण देखते हैं, अरबी भाषा में "ब" लिखने हेतु विशिष्ट चिन्ह (बिंदु) होते हैं यदि हम इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को ऊपर, नीचे करते हुए बदल दे तो हमें तीन अलग अलग शब्द मिलेंगे "त" "ब" और "थ", अब सोचिये यदि कोई अरबी विद्यार्थी बिना विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को प्रयोग किये अरबी का पेपर दे दे, तो शिक्षक उसके लिखे को पढ़ और समझ पायेगा ? कितने नंबर दे पायेगा वो शिक्षक उस विद्यार्थी को ?

अब पाठकगण स्वयं विचार की जब अरबी भाषा विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के पढ़ी और समझी ही नहीं जा सकती, और मूल क़ुरान जो थी वो विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना ही लिखी गयी थी, ये सभी मुस्लिम आलिम इस बात को भली भाँती जानते हैं, ये एक ऐतिहासिक सच्चाई है जो बिना किसी अपवाद के स्वीकार की जाती है, तो वे लोग जिन्होंने विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को क़ुरान में प्रयुक्त किया जिसके जरिये ही आज क़ुरान समझा जा सकता है, तब ये कार्य करने को क्या अल्लाह मियां ने आदेश दिया था ? यदि नहीं तो ये क़ुरान की मूल लेख से खिलवाड़ है, और इसे मिलावट ही क्यों नहीं कहा जाएगा ?

यहाँ एक शंका और भी उतपन्न होती है की जो क़ुरान लिखा गया जो आज मौजूद है, क्या वो सच में वही क़ुरान का ज्ञान है जिसे अल्लाह मियां ने पैगम्बर मुहम्मद साहब पर जिब्रील नामी फरिशते द्वारा अवतरित किया था ? ये शंका इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि सही बुखारी में क़ुरान को दुबारा लिखवाने का आदेश अबु बकर साहब द्वारा ४ लोगो को दिया गया था जिनमे से एक ज़ैद बिन थबित अल अंसारी थे जिन्होंने बुखारी में जो फ़रमाया है, वो हमारे कथन की पुष्टि करता है, देखिये :

ज़ैद बिन थबित अल अंसारी ये उनमे से एक थे जिन्हे अबु बकर द्वारा पवित्र इल्हाम (क़ुरान) को लिखने का दायित्व सौंपा गया था, इन्होने बताया की यममा जंग में लड़ाकों की भारी क्षति हुई थी, अधिकांशतः वो लड़ाके "कुर्रा" भी मृत्यु को प्राप्त हुए जो ह्रदय से क़ुरान को जानते थे। उन्होंने ये भी बताया की इसी लड़ाई के दौरान कुरान का अधिकांश हिस्सा खो गया था।

सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस २०१

पाठकगण, यदि लिखते जाए, तो अनेको प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन इतने से भी पाठकगण आराम से समझ सकते हैं की मूल क़ुरान का व्याकरण कितना कमजोर था, जिसे अनेको पुर्शार्थी मनुष्यो ने ठीक किया, क़ुरान में मौजूद अनेको विदेशी भाषाए इस बात का पुख्ता सबूत है की क़ुरान में भी मिलावट हुई है, क्योंकि अल्लाह मियां क़ुरान में स्पष्ट कहते हैं की क़ुरान को विशुद्ध सरल अरबी भाषा में दिया है ताकि अरब के लोग समझे, लेकिन वहीँ इस क़ुरान में अनेको विदेशी भाषाओ के शब्द स्पष्ट रूप से मौजूद हैं, तब यदि ये मिलावट नहीं तो क्या अल्लाह मियां क़ुरान में झूठ बोले ? अल्लाह मियां क्यों झूठ बोलेंगे, ये मिलावट अवश्य ही शैतानो के बन्दों ने की करवाई है। हम चाहेंगे की ऋषि पर आक्षेप करने की अपेक्षा आक्षेपकर्ता गुप्ता जी, स्वयं संज्ञान लेते हुए, इस विषय पर भी मुस्लिम बंधुओ को आगाह करे।

आक्षेपकर्ता का कहना है की क़ुरान में इतने उच्च और उत्तम मूल्य प्रतिपादित किये हैं जो कोई छलि, कपटी और स्वार्थी व्यक्ति अपनी जंगली, अल्पज्ञ और मतलब सिद्धि के लिए नहीं कर सकता, उसके लिए वे कुछ उदहारण भी देते हैं जैसे :

बेहयाई के करीब तक न जाओ चाहे वह जाहिर हो या पोशीदा (कुरान ६:१५२)

अब पाठकगण स्वयं देखे क़ुरान कितने उच्तम मूल्य स्थापित करती है :

और (पहले से) विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ। अल्लाह का यह आदेश तुम्हारे लिए अनिवार्य (फर्ज) है और जो इन (ऊपर बताई गयी स्त्रियों) के अतिरिक्त हो, वे (निकाह के बाद) तुम्हारे लिए हलाल (वैध) हैं।

(क़ुरान ४:२५)

अब देखिये कितना मानवो के लिए स्त्रियों का कितना उच्च मूल्य स्थापित किया गया है। सभी महिला जो शादीशुदा हो वो हराम हैं मगर वो जो गुलाम (लौंडी) यानी मुशरिक, काफ़िर, आदि व्यक्तियों पर किये गए हमलो, युद्धों के बाद जो उन काफिरो, मुशरिकों की शादीशुदा महिलाये हैं, वो वैध यानी हलाल हैं। सीधा सीधा गणित समझिए, जो मुस्लिम महिला शादीशुदा हो केवल वही हराम है, बाकी काफ़िर, मुशरिक आदि की शादी शुदा महिला भी हलाल (वैध) हैं, तो बाकी दुनिया में और कौन महिला बची जो शादीशुदा हराम हो ?

ये आयत क्यों उतरी, इस पर भी थोड़ा विचार करे, देखिये :

Abu Sa'id al−Khudri (Allah her pleased with him) reported that at the Battle of Hanain Allah's Messenger (may peace be upon him) sent an army to Autas and encountered the enemy and fought with them. Having overcome them and taken them captives, the Companions of Allah's Messenger (may peace te upon him) seemed to refrain from having intercourse with captive women because of their husbands being polytheists. Then Allah, Most High, sent down regarding that:" And women already married, except those whom your right hands possess (iv. 24)" (i. e. they were lawful for them when their 'Idda period came to an end). [Sahih Muslim, Book 8, Hadith 3432]

अबु सईद अल खुदरी ने बताया की हनेन की जंग में रसूलल्लाह ने औतास में फ़ौज भेजी, जो दुश्मन का सामना करने के लिए जंग लड़े। यहाँ तक की वो दुश्मन पर भारी पड़े और उन्हें बंदी बना लिया, रसूल्ललाह के साथी, बंदी औरतो के साथ सम्भोग करने से परहेज कर रहे थे क्योंकि वो औरते बहुदेववादी पुरषो की पत्निया थी। तब अल्लाह जो सर्वोच्च है, इस विषय पर आयत नाज़िल की :

विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ।

सही मुस्लिम - किताब 8 हदीस 3432

अब स्वयं सोचिये, क्या बहुदेववादी लोगो को स्वतंत्रता नहीं की वो अपनी संस्कृति और सभ्यता अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर सके ? क्या बहुदेववादियों से जंग केवल इसीलिए नहीं की गयी की वो अल्लाह और रसूल को नहीं मान कर अपनी संस्कृति का पालन कर रहे थे ? क्या इस्लाम के अनुसार कोई अपनी संस्कृति का पालन करे तो वो गुनाह है ? क्या केवल इसलिए एक महिला की अस्मत आबरू बर्बाद करना जायज़ है की वो अपनी संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर रही है ? क्या ये मानवीय संस्कृति और सभ्यता, तथा पूजा उपासना की स्वतंत्रता को नेस्तनाबूद करने का गुनाह नहीं ? क्या ये कम बेहयाई है जिसको अल्लाह मियां ने करने को आयत नाजिल की, जबकि मुहम्मद साहब के साथ ये सब नहीं करना चाहते थे ?

महर्षि दयानंद ने क्या ही गलत आक्षेप लगाया की ये जंगली सभ्यता और मूर्खो की बनाई पुस्तक है, क्या मुहम्मद साहब अल्लाह से ऐसी आयात नाजिल करवा सकते हैं, जिसमे खुलेआम और बेहयाई और बलात्कार की शिक्षा का स्पष्ट उदहारण हो ? शायद इसीलिए महर्षि दयानंद ने इस किताब को जंगली और असभ्य लोगो की कृति बताया जो अपनी कामवासना को शांत करने हेतु अपने मतलब और स्वार्थ की पूर्ति के लिए रची गयी, इसमें मुहम्मद साहब का नाम लेकर, ऐसी बात गढ़ी गयी है, ये मुहम्मद साहब की ओरिजिनल रचना नहीं, ऐसा प्रतीत होता है।

अब आपक्षेपकर्ता ने जो क़ुरान से विज्ञानं की आयत दिखाई जरा उसे भी नकद हाथ लेते हैं :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

देखिये आक्षेपकर्ता का कहना की क़ुरान में विज्ञानं है, यहाँ बताया की सूर्य अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है, जबकि हम जानते हैं की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, ये तो धरती घूमती है इसलिए ऐसा प्रतीत होता है, बाकी सूर्य सभी ग्रहो को अपने आकर्षण से बांधे रखता है और स्वयं भी घूमता है, तथा अनेको ग्रहो को भी अपनी धुरी पर घुमाता है, इसके साथ साथ अपनी अपनी कक्षा में सभी ग्रह घूमते हैं, पहले भी बताया की सूर्य अपनी धुरी पर तो घूमता ही है साथ अपनी कक्षा में भी घूमता है, जो सूर्य अपनी कक्षा में न घूमे तो एक राशि से दूसरे राशि में नहीं जा सकता, और इसी प्रकार ग्रह भी अपनी धुरी पर घूमते हुए, सूर्य की परिक्रमा करते हैं, परन्तु सौरमंडल के केंद्र में सूर्य है अतः वो किसी अन्य ग्रह की परिक्रमा नहीं लगाता, हाँ सम्पूर्ण सौरमंडल, आकाशगंगा का गांगेय वर्ष पूर्ण करने हेतु परिक्रमा करता है, इसी को आक्षेपकर्ता न समझकर, सूर्य को अन्य ग्रहो का परिक्रमा करने वाला बताते हैं, जो अत्यंत हास्यास्पद है, ठीक वैसे ही जैसे क़ुरान में सूर्य का अपने ठिकाने की और जाना, आइये दिखाते हैं सूर्य अपने नियत ठिकाने की और कहाँ जा रहा है, देखिये :

अबु धार ने बताया कि : पैगम्बर साहब ने मुझसे पूछा "क्या तुम जानते हो सूर्यास्त के समय सूरज कहाँ को जाता है ? मैंने कहा अल्लाह और रसूल ही बेहतर जानते हैं। तब पैगमबर साहब बोले ये (सूर्य) अल्लाह के सिंघासन के नीचे तक जाकर यात्रा करता है, और दंडवत प्रणाम करता है, और सूर्योदय पर निकलने की अनुमति मांगता है, अनुमति मिलने पर सूर्योदय में सूर्य दिखाई देता है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब सूर्य दंडवत प्रणाम करेगा (क्षमा याचना करेगा) लेकिन उसका प्रणाम स्वीकार न किया जाएगा, सूर्य अपने नियत ठिकाने पर जाने की अनुमति मांगेगा, पर उसे अनुमति न मिलेगी, और उसे (सूर्य) को आदेश दिया जाएगा की जहाँ तू छुपता है (पश्चिम में) वहां से उगेगा (सूर्योदय) यानी पश्चिम से सूर्योदय होगा। और यही अल्लाह की उस आयत की व्याख्या है :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

[सही बुखारी जिल्द 4, किताब 54, हदीस 421]

अब देखिये, क्या विज्ञानं और वैज्ञानिकीकरण क़ुरान में प्रस्तुत है, जिसको पूर्ण विज्ञानं आक्षेपकर्ता बता रहे, ये तो सिद्ध है की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, फिर भी क़ुरान में ऐसा बताया गया की सूर्य अल्लाह मियां के सिंघासन के नीचे छुप जाता है, और दुबारा निकलने के लिए क्षमा याचना और दंडवत प्रणाम करता है, क्या सूर्य कोई सजीव वस्तु है जो दंडवत प्रणाम करेगा ? और सूरज पश्चिम से निकलेगा, ये भी असंभव है क्योंकि सूरज तो अपनी कक्षा में ही घूर्णन कर रहा ऐसे ही पृथ्वी करती है, पता नहीं ये आयत कैसे क़ुरान में दर्ज की गयी, ये खुदाई आयत तो नहीं, अवश्य ही कोई जंगली और असभ्य पुरुषो द्वारा क़ुरान में मिलावट की गयी है, ऋषि का ये दावा बिलकुल सत्य है, अब क़ुरान की कुछ और विज्ञनिक आयतो का दर्शन करते हैं, देखिये :

“क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है (क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया। (सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है। (सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है। (सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है (सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।”

इसके अतिरिक्त पूरी कुरान में कहीं भी नहीं लिखा की सूर्य, चन्द्र पृथ्वी आदि ग्रह, अपनी धुरी पर घूमते हैं, अपनी अपनी कक्षा में सौरमंडल की परिक्रमा करते हैं, न ही कही भी यह बताया की सौरमंडल क्या है, आकाशगंगा क्या है, ब्रह्माण्ड क्या है, कहीं भी ऐसा कोई जिक्र नहीं, क़ुरान में केवल धरती, सूर्य और चन्द्रमा का ही विवरण है, न ही आकाशगंगा, न अनेको ग्रहो का कोई वर्णन है, अतः यह सिद्ध है की क़ुरान का बनाने वाला खगोलविद्या को नहीं जानता था, इसीलिए महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान की खगोल विद्या पर आक्षेप प्रकट किये। वहीँ ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में ही वेदो से प्रमाण बतलाये हैं की पृथ्वी सूर्य की प्रक्रिमा करती है, सूर्य अपने आकर्षण से सभी ग्रहो को बांधे रखता है, सभी ग्रह सूर्य की प्रक्रिमा करते हैं, और सूर्य भी अपनी कक्षा का चक्कर लगाता है, किन्तु किसी ग्रह (लोक) का चककर नहीं लगाता, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है, और सबसे बड़ा होने से ये सम्भव भी नहीं, लेकिन फिर भी आक्षेपकर्ता का बौद्धिक दिवालियापन इस सत्यता को स्वीकार नहीं करता, हम पुनः दिखाते हैं, देखिये :

स दाधार पृथिवीमुत द्याम् ।। यह यजुर्वेद का वचन है।

जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोकालोकान्तर पदार्थ तथा सूर्य्यादि प्रकाशसहित लोक और पदार्थों का रचन धारण परमात्मा करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है, वही सब जगत् का कर्त्ता और धारण करने वाला है।

(प्रश्न) पृथिव्यादि लोक घूमते हैं वा स्थिर?

(उत्तर) घूमते हैं।

(प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाय?

(उत्तर) ये दोनों आधे झूठे हैं क्योंकि वेद में लिखा है कि-

आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः।।

-यजुः० अ० ३। मं० ६।।

अर्थात् यह भूगोल जल के सहित सूर्य्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिये भूमि घूमा करती है।

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

-यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता। और जो जैनी कहते हैं कि पृथिवी घूमती नहीं किन्तु नीचे-नीचे चली जाती है और दो सूर्य और दो चन्द्र केवल जम्बूद्वीप में बतलाते हैं वे तो गहरी भांग के नशे में निमग्न हैं। क्यों? जो नीचे-नीचे चली जाती तो चारों ओर वायु के चक्र न बनने से पृथिवी छिन्न भिन्न होती और निम्न स्थलों में रहने वालों को वायु का स्पर्श न होता। नीचे वालों को अधिक होता और एक सी वायु की गति होती। दो सूर्य चन्द्र होते तो रात और कृष्णपक्ष का होना ही नष्ट भ्रष्ट होता है। इसलिये एक भूमि के पास एक चन्द्र, और अनेक चन्द्र, अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।

(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास)

यहाँ विज्ञानं का कितना सुंदर प्रस्तुतिकरण महर्षि दयानंद ने किया की आज तक ये सब बाते सत्य निकलती हैं, लेकिन जो पूर्वाग्रही मानसिकता से ग्रसित हैं, उनको सत्य नकारने की आदत बनी रहती है, चाहे कितना ही सच्चाई समझाते रहो।

इसके आगे, पुनः पुनराक्तिदोष आक्षेपकर्ता ने प्रकट किये हैं, जिनका निराकरण पूर्व के लेख में हो गया और आगे के लेख में और हो जाएगा।