Tuesday, October 20, 2015

सतीश चंद गुप्ता द्वारा उठाये (4 पिछले पोस्ट के साथ) पहले अध्याय का जवाब पार्ट 5 (B)

गत पोस्ट से आगे, शब्दों की समय सीमा के कारण पोस्ट में २ पॉइंट छूट गए जिनको यहाँ दिया जाता है। 

5. मनुष्य और पशु आदि में जीव एक सा है। (९:७४)

समीक्षा : वैसे तो समीक्षक की हास्यास्पद बात पर अनेको तथ्य इसी पॉइंट में लिखे जा सकते हैं, मगर इसी विषय से सम्बंधित एक अध्याय भी है "मरणोत्तर जीवन - तथ्य और सत्य" समुचित व्याख्या उस अध्याय में की जाएगी, यहाँ केवल संक्षेप में समझाने की कोशिश करते हैं, जो भी चेतन शक्ति हैं उनमे विज्ञानिक दृष्टिकोण से इन्द्रियों का समावेश होता है, जिन चेतन सत्ताओ में इन्द्रियां पायी जाती हैं उनमे जीव होता है, इसलिए उन्हें सजीव कहा जाता है, क्योंकि इन्द्रिया जीव के सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है ये आध्यात्मिक दृष्टिकोण है अतः इस पर समुचित व्याख्या सम्बंधित विषय में करेंगे यहाँ केवल इतना समझते हैं की चाहे मनुष्य हो या पशु इनके शरीर में जीव रहता है तब तक शरीर कार्य करता है। इन्दिर्यो का सुचारू रूप से कार्य करना स्वस्थ शरीर की निशानी है। जैसे जैसे शरीर कमजोर होता जाता है उसमे इन्द्रियों को धारण करने की शक्ति क्षीण होती जाती है और जब शरीर इन्द्रियों को धारण करने की अवस्था में बिलकुल भी नहीं रहता तब जीव (आत्मा और सूक्ष्म शरीर) इस भौतिक शरीर का त्याग कर एक नए शरीर अर्थात पुनर्जन्म धारण करती है। इसे ही मृत्यु और जीवन का निरंतर चक्र अथवा प्रक्रिया कहा जाता है। अब यदि समीक्षक अति विद्वान और वैज्ञानिक है तो जैसा क़ुरान बताती है उसके आधार पर तो पशु में जीव (आत्मा) नहीं की थ्योरी मानने वाले कृपया बताये की पशु मर क्यों जाता है ? जिस शरीर में जीव होगा वह शरीर संयोग और वियोग करेगा पशु और मनुष्य में केवल यही समानता ही नहीं और भी अनेको समानताये पायी जाती हैं, पशु में भी वही इन्द्रियाँ हैं जो मनुष्य में हैं, आँख (देखना) कान (सुनना) नाक (सूंघना) त्वचा (स्पर्श) जीभ (स्वाद ग्रहण करना), रक्त, हड्डी, नस, नाड़ी इत्यादि अनेको शरीर में विद्यमान प्रक्रिया जो मनुष्यो में भी होती हैं, इनके अतिरिक्त आहार लेना, निद्रा, मैथुन आदि द्वारा संतानोत्पत्ति करना, संतान का रक्षण और उसे शिकार आदि करने की शिक्षा देना जैसे मानो मनुष्य अपने संतान को शिक्षा आदि ग्रहण करवाने को गुरु, विद्यालय आदि भेजते हैं सब कुछ वही प्रक्रिया जो मनुष्य में पायी जाती है वही पशुओ में भी यहाँ तक की दोनों ही शरीरो का जीवन और मृत्यु से भी संबंध है क्योंकि दोनों ही मनुष्य और पशु मृत्यु के गाल में समाते ही हैं।

हाँ ये सत्य है की मनुष्यो में बुद्धि का जो गुण परमपिता परमात्मा ने दिया है वो पशुओ के पास वैसी बुद्धि नहीं दी क्योंकि ईश्वर ने पशु पक्षियों को स्वाभाविक ही वो ज्ञान दिया है जो उनके लिए जरुरी है जैसे मगरमच्छ का बच्चा अंडे से निकलते ही तैराकी के गुण जानता है, पक्षियों के बच्चे उड़ने का गुण लिए पैदा होते हैं, ठीक वैसे ही मनुष्य की संतान उत्पन्न होते ही दूध पीने आदि गुणों से संयुक्त उत्पन्न होती है क्योंकि ये व्यवस्था ईश्वर की है, मगर मनुष्य में सोचने और समझने की बुद्धि ईश्वर ने इसीलिए दी ताकि मनुष्य परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष ग्रहण कर सके। ईश्वर ने बुद्धि केवल इसलिए नहीं दी की नाहक ही पशुओ को मारकर उनका खून बहकर अपनी क्षुधा शांत करे, इस विषय पर सम्बंधित विषय में लिखेंगे।

कुरान में अल्लाह मियां ने स्पष्ट कर दिया है की मनुष्यो को अन्य जीवित प्राणियों का खलीफा बनाकर पृथ्वी पर भेजा जा रहा है यानी कुरान इस बात का पूर्णतया समर्थन करता है की मनुष्य को अन्य पशु पक्षियों की सत्ता पर अधिकार देकर खलीफा बना कर भेजा गया (कुरान 2:31) अब सोचने की बात है, क्या खलीफा (अधिनायक) सत्ताधारी पक्ष, केवल बेजुबान पशु पक्षियों पर अत्याचार करके, उन्हें मारकर उनका मांस खाने वाला बन कर अपनी सत्ता का गलत और नाजायज़ फायदा नहीं उठा रहा ? क्या ऐसे अत्याचारी और हत्यारे को खलीफा (अधिनायक) घोषित किया जा सकता है ? शायद यही वजह थी की अल्लाह के पास मौजूद अनेको फरिश्तो ने भी इस कार्य के लिए अल्लाह को चेताया था (क़ुरान 2:31) क्या अब भी ये बताने की जरुरत है की खलीफा (अधिनायक) का दायित्व है बेजुबान पशु पक्षियों की रक्षा करना ना की उन्हें अपनी जीभ के स्वाद लेने हेतु हत्या कर खा जाना। आइये क़ुरान से ही स्पष्ट करते हैं की मनुष्य और पशु पक्षी आदि में एक ही जीव है वैसे तो इस विषय को पहले भी बताया जा चूका है मगर एक बार पुनः देखिये :

फिर जब उन्होंने उन बातो से रुकने की अपेक्षा जिन से उन्हें रोका गया था और भी आगे बढ़ना शुरू किया तो हमने उन्हें कहा की तुच्छ (जलील) बंदर बन जाओ।

(क़ुरान ७:१६७)

समीक्षक के अनुसार यदि कुरान में पशु पक्षी में आत्मा (जीव) का होना नहीं पाया जाता तो जो ये समंदर के पास रहने वाली बस्ती के मनुष्यो को बन्दर बनाने की बात क़ुरान में अल्लाह ने बताई ये मिथ्या है ? क्या ये कोई विशिष्ट प्रकार के बन्दर थे जिनमे मनुष्य जैसा ही जीव था अथवा कोई सामान्य बन्दर थे ? समीक्षक को कुरान पढ़ने पर ये भी ज्ञात होगा की कुरान में ही अनेको जगह मनुष्य और पशु पक्षियों यहाँ तक की जितनी भी जीवित सत्ताएं पृथ्वी पर पायी जाती हैं सब की सब पानी से ही बनी है देखिये :

हमने पानी के द्वारा प्रत्येक सजीव को जीवन प्रदान किया है।

(क़ुरान २१:३१)

मैं तुम्हारे भले के लिए गीली मिटटी का स्वाभाव रखने वालो (अर्थात विनम्र स्वाभाव वालो) से पक्षी (के पैदा करने) की तरह (प्राणी) पैदा करूँगा, फिर मैं उनमे एक नयी रूह फूकूंगा जिस से वे अल्लाह के आदेश के साथ उड़ने वाले हो जायेंगे।

(क़ुरान ३:४९)

यहाँ भी पशु पक्षियों में मनुष्य के जैसे ही अल्लाह के आदेश से रूह फूकने की बात एक पैगम्बर ने बताई जो अल्लाह की तरफ से चमत्कार रूप में प्रकट किया। क्या इससे स्पष्ट नहीं की समीक्षक को क़ुरान का जरा भी ज्ञान नहीं जो विज्ञानं विरुद्ध लिखकर कहा की पशु पक्षियों में आत्मा नहीं होती ? आइये एक और आयत जिससे पूर्णतया स्पष्ट हो जायेगा की पशु पक्षियों की आत्माओ के साथ भी अंतिम दिन इन्साफ होगा अर्थात मनुष्यो की तरह ही पशु पक्षियों की आत्माओ को भी इकठ्ठा किया जाएगा और अल्लाह इंसाफ करेगा देखिये :

धरती में चलने फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नेवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह हैं। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की और इकट्ठे किये जायेंगे।

(क़ुरान ६:३८)

उपरोक्त आयत स्पष्ट वर्णन करती है की पशु हो या पक्षी सब मनुष्यो के जैसे ही गिरोह हैं यानी मनुष्य के जैसे जमात है, और अंतिम दिन पशु पक्षी भी रब की और इकट्ठे किये जाएंगे, अब इससे भी बड़ा सबूत समीक्षक को और क्या चाहिए ? क्या समीक्षक की इस विषय पर की गयी बेतुकी समीक्षा को दिमागी बुखार या पूर्वाग्रही मानसिकता न कहा जाए ?

6. स्वर्ग नरक का कोई अलग लोक नहीं है। (९-७९)

समीक्षा : पुस्तक के लेखक ने या तो वेदादि सत्य शास्त्रो को ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ा अथवा ऐसी समीक्षाओं का कारण केवल महर्षि दयानंद की कुरान पर की गयी ज्ञानवर्धक समीक्षाओं पर व्यर्थ का प्रलाप भंजन है। देखिये इस विषय में भी पुनरक्ति दोष है अतः सम्बंधित विषय के अध्याय में विस्तार से वैदिक स्वर्ग और इस्लामी बहिश्त तथा मरणोत्तर जीवन विषय पर तर्क और प्रमाण के साथ लिखा जायेगा, यहाँ केवल संक्षेप में बताया जाता है :

स्वर्ग शब्द स्वः (सुख) से बना है। 'सुखम गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः' अर्थात जिसमे सुख की प्राप्ति हो वह स्वर्ग है। अतः प्रत्येक अवस्था तथा प्रत्येक वह स्थान जिसमे मनुष्य सुखी रहता है और दुःख से बचता है स्वर्ग है। आत्मिक स्वर्ग के लिए मुक्ति शब्द है। इसका अर्थ भी दुखो से छूटना है। सांसारिक जीवन में भी मनुष्य किसी विशेष बंधन से छूटता है तो कहता है "मैं इससे मुक्त हो गया" और सुख मिलता है तो कहता है मैं स्वर्ग में हु"

आत्मा के लिए सर्वोत्कृष्ट सुख का आदर्श यह है की वह शरीर अर्थात जन्म मृत्यु के बंधन से छूटकर सर्वसुख तथा आनंद स्वरुप प्रभु (ईश्वर, अल्लाह) की संगती से आनंद प्राप्त करे। कुरआन में जन्नत शब्द शारीरिक और आत्मिक दोनों प्रकार की सफलता के लिए प्रयुक्त किया गया है। बहिश्त में सारे सांसारिक सुख, उत्तम पदार्थ तथा मानसिक शांति आदि फल मिलते हैं वहीँ दूसरी और मुक्ति में ज्ञान, आत्मिक आनन्दादि का प्रवाह चलता है, क्या लेखक इस विषय पर समीक्षा करेंगे की जो सांसारिक सुख इस लोक में हैं जिसमे मनुष्य फंसकर दुःख उठता है, वही सांसारिक सुख, हूरे, गिलमा, सोने के कड़े, चांदी के आभूषण, तकिये गिलाफ, मोती जड़ित बर्तन आदि में फंसकर कौन सा सुख मिलेगा ?

हाँ सर सैयद अहमद खान इसी विषय पर अपनी पुस्तक में क्या लिखते हैं, शायद लेखक ने कभी उसपर विचार प्रकट करते हुए इस्लामी बहिश्त की समीक्षा करने का ख्याल तक न रखा ?

वैदिक स्वर्ग और इस्लामी बहिश्त के विषय में ज्यादा जानकारी विषय से सम्बंधित अध्याय में प्रकट की जायेगी फिलहाल कुछ प्रमाण यहाँ दिए जाते है जिससे पाठकगण स्वर्ग का विशुद्ध स्वरुप ज्ञात कर सके :

ज्योतिष्टोमयाजी स्वर्गं समश्नुते।।
या एवं विहानस्माच्छरीरभेद।
दूर्ध्व उत्क्रामयामुष्मिन स्वर्गे लोके सर्वान् कामानापत्वामृताः समभवत् समभवत्।।
(ऐ० उ० खं० ४ मं ६)
ज्योतिष्टोम यज्ञ करने वाला स्वर्ग को पाता
है।

जो विद्वान इस शरीर के भेद को जानकर पार हो जाता है वह इसी लोक में सब मनोरथो को पूरा करके स्वर्ग को पाटा और अमर हो जाता है और हो भी गए हैं।

अनस्थाः पूताः पबनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम।
नैषां शिश्नम प्रदहति जात वेदः स्वर्गे लोके बहुस्त्रैणमेषाम्।।

अस्थियां जिनकी नज़र न आती हो अर्थात हष्ट, पुष्ट और बलिष्ठ ब्रह्मचारी, पवित्र आचरण युक्त, प्राणायामादि से शुद्ध और निरोग तथा पवित्र मनवाले पुरुष इस पवित्र लोक (गृहस्थ) में प्रविष्ट होते हैं। उनका प्राप्त किया हुआ ज्ञान उनकी काम शक्ति को नष्ट नहीं होने देता। चाहे इस स्वर्ग लोक (गृहस्थ) में उनके आस पास बहुत स्त्रियां रहती हो।

इस मन्त्र में जो बहुस्त्रेण शब्द आया है, उसने उन लोगो को बड़े चक्कर में डाला है जो ब्रह्मचर्यादि के महत्त्व को अनुभव नहीं कर सकते। उन्होंने समझ लिया की स्वर्ग में बहुत सी स्त्रियां मिलेंगी यहाँ तक ७२ हूरो का ख्याल प्रसिद्द हो चूका है। यह स्वर्ग सच्चे अर्थो में इसी गृहस्थ का नाम है। पर अज्ञानवश लोगो ने इसे किसी ऊपर के गुप्त स्थान में मान रखा है। इस मन्त्र में जो बहुत स्त्रियों का वर्णन आया है वो भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि जो गृहस्थ में प्रवेश करता है, तब उसके अनेको नए रिश्ते बनते हैं, और मनुष्य सामाजिक प्राणी है अतः जिस नगर में मनुष्य रहता है उसमे अन्य अनेको पुरुषो की अनेको रिश्तो वाली स्त्रीया रहती हैं, अतः स्वर्गलोक (गृहस्थ) में बहुत स्त्रियों का शब्द आना साधारण बात है और जो सदाचारी, संयमी, पवित्र आत्मा, ब्रह्मचारी गृहस्थ में प्रवेश करे उसको यह शिक्षा देना भी परमावशयक है की गृहस्थ आश्रम में भी वह ब्रह्मचर्य का पूरा ख्याल रखे। स्त्रियों की आसपास विद्यमानता होने से जो ब्रह्मचर्य के विरुद्ध भाव उत्पन्न हो सकता है उसमे सावधान करने के लिए वेद का ऐसी नैतिक और उत्तम चारित्रिक शिक्षा देना ही गृहस्थ को स्वर्गधाम बनाने में सहायक हो सकता है। अतः सिद्ध है की स्वर्ग और नरक सुख और दुःख का बोध और बोध करवाने वाले साधनो को ही कहते हैं अन्य लोकादि को नहीं, क़ुरान भी यही आदेश करती है, इस विषय पर विस्तृत व्याख्या विषय से सम्बंधित अध्याय में की जायेगी।

पहले अध्याय में और भी थोड़े आक्षेप समीक्षक ने किये हैं जो अगले अध्यायों में एकसमान ही हैं अतः आगे अध्यायों में उन आक्षेपों का भी निराकरण करने का प्रयास किया जाएगा। यहाँ पहले अध्याय के आक्षेप का विस्तार और संक्षेप दोनों ही प्रकार से उत्तर देने का प्रयास किया गया है। कुछ विषयो पर संक्षेप में लिखा गया है क्योंकि अन्य अध्यायों में भी वही आक्षेप का उत्तर विस्तार से बताया जायेगा।

आप सभी बंधुओ से निवेदन है कृपया अपने महत्वपूर्ण विचार पोस्ट पर अवश्य प्रकट करे।

धन्यवाद

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