Tuesday, October 20, 2015

सतीश चंद गुप्ता द्वारा उठाये पहले अध्याय के 5 / 15 पॉइंट का जवाब ...... पार्ट 2

जैसे की पिछली पोस्ट को आपने पढ़ा, उस पोस्ट में महर्षि दयानंद द्वारा की गयी क़ुरान पर समीक्षाओं और निर्देशो पर सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा अपनी ही समीक्षाएं प्रस्तुत की गयी जो किसी भी प्रकार ठीक विदित नहीं होती क्योंकि जो उन्होंने समीक्षाएं की वो समीक्षा कम पूर्वाग्रह द्वारा उठाये गए सवाल ज्यादा मालूम होते हैं क्योंकि बिना पूरा प्रकरण समझे और ऋषि के सत्य सिद्धांत वाली बात को परखे अनजाने में ही शायद समीक्ष्याये की गयी होंगी, क्योंकि ऐसा चतुर विद्वान मेने आज तक नहीं देखा जो एक महर्षि द्वारा रचित सत्य सिद्धांतो पर आधारित पुस्तक पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देवे ?

ये भी हो सकता है की सतीश चंद गुप्ता जी ऋषि की बातो को पूर्ण अर्थ में न समझ सके हो क्योंकि ऋषि ने वेद और आर्ष ग्रंथो को ही मान्य किया लेकिन शायद लेखक सत्य सिद्धांतो की अपेक्षा किसी मत व सम्प्रदाय के पक्ष में ज्यादा झुकाव महसूस करता हो इसलिए ऐसा दोषारोपण करने का प्रयास किया हो, खैर जो भी हो हम पूरी कोशिश करेंगे की लेखक द्वारा उठाई गयी शंकाओ पर अपना मत प्रकट करे ताकि सत्य असत्य का निराकरण होने से ऋषि के सत्य सिद्धांतो की बाते लेखक को समझ आये।

ऐसे ही पहले अध्याय में 15 आक्षेप (समीक्षाएं) की गयी हैं जिनका क्रमगत जवाब इस लेख में दिया जायेगा।

1. प्रसूता छह दिन के पश्चात बच्चे को दूध न पिलाये।

समीक्षा : अब देखिये लेखक ने ऋषि की बात को न समझकर क्या से क्या लिख दिया, ऋषि ने जो लिखा वो देखिये :

"ऐसा पदार्थ उस की माता वा धायी खावे कि जिस से दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त हों। प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे। पश्चात् धायी पिलाया करे परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता-पिता करावें। जो कोई दरिद्र हो, धायी को न रख सके तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम औषधि जो कि बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य करने हारी हों उनको शुद्ध जल में भिजा, औटा, छान के दूध के समान जल मिलाके बालक को पिलावें।" (द्वित्य समुल्लास)

अब देखिये ऋषि ने कहीं लिखा की प्रसूता ६ दिन बाद बच्चे को दूध न पिलाये, बल्कि व्यवस्था बताई है की धाई जो उत्तम पदार्थो का खान पान करवाकर उसका दूध बच्चे को पिलावे, अथवा निर्धन हो तो गाय, व बकरी के दूध में औषधि साथ में थोड़ी जल की मात्रा भी बच्चे को पिलाये। क्योंकि शिशु का पाचन कमजोर होता है इसलिए थोड़ा जल मिलाने का विधान किया है।

दूसरी बात यदि लेखक का कहना ये है की प्रसूता यानी माता का दूध बच्चे को न पिलाये तो उसके लिए भी ऋषि ने प्रथम ६ दिन तक माता को बच्चे को दूध पिलाने की बात लिखी है उसके पीछे की वैज्ञानिक बात देखिये :

माता के दूध में जो गुण होता है जिससे बच्चा स्वस्थ, निरोगी और बुद्धिमान बनता है उसे "कोलोस्ट्रम" कहते हैं, ये एक प्रकार से माता के शरीर में दूध ही होता है, जो पहले २४ घंटे में बहुत गाढ़ा, और पीला रंग का निकलता है जिसे बच्चे को पिलाना बेहद जरुरी है, २-४ दिन बाद ये हल्का पीला दूध होता जाता है और ८वे दिन ये पीला रंग यानी "कोलोस्ट्रम" सामान्य लेवल पर आ जाता है। यानी दूध का रंग और गुण दोनों ही सामान्य हो जाते हैं, और जो शुरूआती ६ दिन का गुणवर्धक और बलवर्धक औषधि सामान दूध है वो तो महर्षि ने प्रसूता द्वारा शिशु को पिलाने का विधान ऋषि ने आर्ष ग्रंथो के आधार पर कर ही दिया है।

हालांकि मेडिकल स्टडीज बताती हैं की ६ महीने तक दूध पिलाना चाहिए, लेकिन ऋषि ने जिस महत्वपूर्ण बात की और निर्देश दिया है वो समझने वाला है देखिये :

"क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे। दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो।" (द्वित्य समुल्लास)

इसलिए क्योंकि स्त्री प्रसव बाद बेहद कमजोर हो जाती है, अतः जितना स्त्री और शिशु की देखभाल और सुरक्षा की जाए वह उत्तम ही है। बाकी तो धायी भी स्तन पान करवाये तो उत्तम उत्तम पदार्थ उसके भक्ष्य हेतु हो, व निर्धन होने पर गाय व बकरी के दूध में उत्तम औषधि से शिशु का लालन हो तो भी श्रेयस्कर है।

2. 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरूष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (3-31) (4-20) (14-143)

समीक्षा : अब देखिये हमारे विद्वान बंधू गुप्ता जी का स्वाध्याय जो कभी शरीर शास्त्र पढ़ लिया होता तो ऋषि की बात का यु छोटा सा अंश लेकर समीक्षा न करते, देखिये ऋषि ने क्या लिखा है :

इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक (वृद्धि) जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। दूसरा (यौवन) जो २५ वें वर्ष के अन्त और २६वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी (किि ञ्चत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है वही ४० वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।

आज विज्ञानं सम्मत है, ये चार चरण, बाल्यावस्था, युवावस्था, परिपक्व और वृद्ध ये चार अवस्थाये हैं, ऋषि ने यही समझाने का प्रयास किया है, विज्ञानं भी मानता है की स्त्री का शरीर कम से कम 16-18 वर्ष का होना ही चाहिए और पुरुष का कम से कम 25 वर्ष। अधिक से अधिक विवाह योग्य आयु का ऋषि ने विधान दिया है क्योंकि इस अवस्था में शरीर परिपक्व और बुद्धि मच्योर होती है।

यूके में स्थित नई केस्टल यूनिवर्सिटी के विज्ञानिको द्वारा की गयी शोध से प्रमाणित हुआ की महिलाये पुरुषो के मुकाबले जल्दी यहाँ तक की बहुत जल्दी परिपक्व होती हैं वहीँ "दी नई यॉर्क टाइम्स" में पिछले साल दिसम्बर २०१४ में छपी खबर के मुताबिक ३२ वर्ष की उम्र में विवाह हुए पुरुषो की शादी कम उम्र में हुई शादियों के मुताबिक बेहतर रिजल्ट देती है।

3. गर्भ स्थिति का निश्चय होने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद समीक्षा करने हेतु ये भूल गए की विवाह का दायित्व संतानोत्पत्ति के साथ साथ अपनी जीवनसंगनी का स्वास्थय और शरीररक्षा भी होती है, शायद हमारे बंधू यौनसुख को ज्यादा महत्त्व देने के कारण ये बुनियादी नियम भी भूल गए की यौन सुख महज कुछ मिनट का होता है जबकि इस यौन सुख के कारण यदि भ्रूण या गर्भ में इस यौनकर्षण के द्वारा कुछ अकस्मात् गंभीर हो गया तो ये बेहद गलत बात होगी। क्योंकि गर्भ में भ्रूण बनने के बाद यदि यौन क्रिया करते रहे तो इससे गर्भ में मौजूद शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऋषि ने ये बात इसलिए भी लिखा है ताकि ब्रह्मचर्य को जीवन में अपनाया जाए, क्योंकि सभी जानते हैं वीर्य की रक्षा जीवन की रक्षा है। अब जो लोग यौनसुख के अभिलाषी हैं उनको ब्रह्मचर्य जल्दी समझ नहीं आ सकता। ये बहुत शोध और समझने का विषय है।

4. जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरूष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू शायद भूल गए की यदि जिसके संतान न हो पाती हो तो उसके पास दो उपाय होते हैं, 1. संतान गोद लेना अथवा नियोग जिसे आज के समय में IVR के नाम से भी जाना जाता है। इस विषय पर विस्तार से आगे के अध्याय में लिखा जायेगा।

5. यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद विज्ञानं और रासायनिक क्रिया को भूल गए, क्योंकि वेद और आर्ष साहित्य को ठीक ढंग से न पढ़ पाने के यही परिणाम होता है, खैर गुप्ता जी ये देखिये आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है
http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…
अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।
अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु - शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे - दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था - "घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।" इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने "ब्यूबॉनिक प्लेग" नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, "हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।"

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

"जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।"
(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है। इस विषय पर विस्तार से आपको आगे के अध्यायों में बताया जायेगा।

5-5 पॉइंट के हिसाब से लेखक की 15 शंकाओ का जवाब दिया जा रहा है जिस विषय को शार्ट में लिखा है उसका पूरा विस्तार उक्त विषय से सम्बंधित अध्याय में पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का ध्येय रहेगा। क्योंकि हमारे बंधू गुप्ता जी लेखन को नहीं जानते होंगे इसलिए जो १५ पॉइंट इन्होने पहले अध्याय में उठाये वही १५ पॉइंट पर पूरी किताब बेस है, इसलिए यहाँ जिन पॉइंट को विस्तार से बताया उनका सम्बन्ध आगे की अध्याय में नहीं है इसलिए यही सम्पूर्ण बता दिया है, क्योंकि बार बार एक ही विषय को बताते रहने से "पुनरुक्ति दोष" होता है जो हम नहीं चाहते, लेकिन हमारे शंकाकर्ता बंधू की तो पूरी पुस्तक ही इस दोष से युक्त है, क्योंकि जगह जगह एक ही विषय को बार बार व्यर्थ ही घसीटा जा रहा है ताकि इनकी पुस्तक बड़ी हो जाए और ऋषि पर लेखक कुछ आपत्ति दर्ज करवा सके, सो ये तो हो नहीं सका उलटे शायद लेखक पर ही अब कुछ सवाल खड़े हो गए हैं जिनमे प्रमुख है "पुनरुक्ति दोष"

ऋषि के लेखन पर तो लेखक ने व्यर्थ ही सवाल खड़े करे मगर जो इनकी पुस्तक में पुनरुक्ति दोष है उसपर लेखक कब विचार करेंगे ?

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