Tuesday, October 20, 2015

सतीश चंद गुप्ता द्वारा की गयी समीक्षा पहले अध्याय का जवाब ...... पार्ट 1

प्यारे मित्रो व बंधुओ, नमस्ते

अभी कुछ दिन से एक पुस्तक पढ़ रहा था "सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा" जिसके लेखक सतीश चंद गुप्ता हैं, कहने को तो उन्होंने महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई आपत्तियों और समीक्षाओं पर अपनी समीक्षाएं करने का दावा किया है मगर ये समीक्षाएं कितनी फिट बैठती हैं ये हम इस लेख में समझने का प्रयास करेंगे। अभी इस लेख में इनकी पुस्तक के पहले अध्याय में महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई वाजिब और अनूठी शंकाओ और टिप्पणियों पर इनकी समीक्षाओं का जायजा लेंगे बाकी अगले लेखो में भी इनके द्वारा की गयी समीक्षाओं की व्यवहारिकता और सार्थकता पर भी प्रकाश डालने का पूर्ण प्रयास करेंगे ताकि हमारे बंधू सतीश चंद गुप्ता जी ये न कहे की इन्हे जवाब न मिला। आइये इनकी एक एक समीक्षा को देखे और समझे :

सतीश चंद गुप्ता जी (हमारे बंधू) ये बात स्पष्ट तौर पर स्वयं मानते हैं की ऋषि का ज्ञान जो सत्यार्थ प्रकाश में फैला हुआ है वो लगभग ३००० पुस्तको को पढ़ने के बाद का निचोड़ है, मगर अगले ही पल सत्यार्थ प्रकाश को आर्य समाज की रीढ़ की हड्डी बता दिया, हमारे प्रिय बंधू को शायद ये ज्ञात नहीं है की प्रत्येक आर्य समाजी अथवा हिन्दू भाई की रीढ़ की हड्डी और मान्य धार्मिक ग्रन्थ केवल और केवल "वेद" हैं, महर्षि दयानंद ने भी वेदो और आर्ष ग्रंथो तथा पुराण क़ुरान आदि अनार्ष ग्रंथो के गहन अध्यन पश्चात ही "सत्यार्थ प्रकाश" जैसी अमूल्य निधि का निर्माण किया ताकि समस्त मानव जाति सत्य को जानकार असत्य को त्याग देवे, आर्य समाज भी ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश को सत्य असत्य के निर्धारण हेतु पढ़ना और पढ़ाना मानता है बाकी स्वाध्याय तो वेद और अन्य आर्ष ग्रंथो का भी करना चाहिए, सत्यार्थ प्रकाश एक निर्देशिका है जो वेद और आर्ष ग्रंथो तथा प्राचीन ऋषियों मुनियो का जो धर्म के प्रति विचार थे उनका प्रकटीकरण करना और सत्य तथा असत्य के भेद को जानने में सहायता लेना।

धयान देने वाली बात है जब किसी मत या सम्प्रदाय की ऐसी बातो पर ध्यान दिलाया जाए जो मानव समाज के लिए हितकर न हो और उसकी समीक्षा समुचित तर्कपूर्ण आधार पर हो तो उस मत व सम्प्रदाय को थोड़ा बुरा लगना अथवा असहज हो जाना, ये सम्बंधित मत व सम्प्रदाय वाले मनुष्यो का स्वाभाव ही होगा, क्योंकि ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश के भूमिका में ही लिखा है :

"मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।"

महर्षि का बड़ा ही सरल और सहज भाव था की जो सत्यान्वेषी होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उसे सत्य को ग्रहण करने में कोई परेशानी न होगी,

"परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।"

ये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ही लिख दिया गया है, पर खेद की जो विद्वान व आप्त लोग जैसे हमारे बंधू सतीश चंद जी महर्षि की उक्त बातो को ठीक से न समझकर केवल पूर्वाग्रह से ही शायद अपनी समीक्षा करते गए।

आइये अब एक एक शंका को देखते हैं की सतीश चंद जी की समीक्षा पर समीक्षा क्या है ?

1. महर्षि को संस्कृत का प्रकांड विद्वान भी मानते हैं और उन्ही महर्षि के द्वारा लिखी गयी समीक्षा को भाषा शैली अनुसार घिनौनी और शर्मनाक भी कहते हैं, पर क्या सच में ऐसा है ? आइये एक नजर डाले :

देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला : ये शब्द महर्षि ने किस कारण और प्रकरण पर उपयोग किया जरा पूरा देखिये :

"अर्थात् देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला जो कि वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ वाममर्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी कचौरी और बड़े रोटी आदि चर्वण, योनि, पात्रधार, मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर" (एकादश समुल्लास)

बताइये जो वेद विरुद्ध कर्म हो ऐसे हीन और लज्जामय कर्म को यदि कोई धार्मिक कार्य बतावे तो क्या उसकी बढ़ाई होगी ?

आगे देखिये :

"रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि में पड़ने से उस के सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जग्त में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदी का बह चलना आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी और देवी का सिह और उस की सेना कहां रही थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? जो भर जाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि, वनस्पति आदि वृक्ष कहां रहते? यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनाने वाले पोप के घर में भाग कर चले गये होंगे!!! देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया जिसका ठौर न ठिकाना।" (एकादश समुल्लास)

अब देखिये यहाँ भी सतीश चंद जी ऐसे ही अन्य आक्षेप भी बिना प्रकरण को पूरी तरह से पढ़े केवल पूर्वाग्रह के कारण अपनी समीक्षाओं में लिखते गए यदि पूरी समीक्षाएं इसी प्रकार आपके समक्ष रखता जाउ तो बहुत बड़ा लेख हो जावेगा इसलिए आप एक बार स्वयं भी सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं को पढ़कर सतीश चंद जी की समीक्षाओं पर खुद नजर डाले की वो आखिर किस हद तक वाजिब हैं

जबकि महर्षि दयानंद सत्य के कितने बड़े मान्यकर्ता थे वो आपको हम दिखाते हैं :

ऋषि ने जहाँ जहाँ क़ुरान में जो थोड़ा बहुत सत्य पाया है उसपर अपने विचार भी प्रकट किये हैं :

१३७-उतारना किताब का अल्लाह गालिब जानने वाले की ओर से है।। क्षमा करने वाला पापों का और स्वीकार करने वाला तोबाः का।।

-मं० ६। सि० २४। सू० ४०। आ० १। २। ३।।

(समीक्षक) यह बात इसलिये है कि भोले लोग अल्लाह के नाम से इस पुस्तक को मान लेवें कि जिस में थोड़ा सा सत्य छोड़ असत्य भरा है और वह सत्य भी असत्य के साथ मिलकर बिगड़ा सा है। इसीलिये कुरान और कुरान का खुदा और इस को मानने वाले पाप बढ़ाने हारे और पाप करने कराने वाले हैं। क्योंकि पाप का क्षमा करना अत्यन्त अधर्म है। किन्तु इसी से मुसलमान लोग पाप और उपद्रव करने में कम डरते हैं।।१३७।। (चतुर्दश समुल्लास)

"अब इस कुरान के विषय को लिख के बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूँ कि यह पुस्तक कैसा है? मुझ से पूछो तो यह किताब न ईश्वर, न विद्वान् की बनाई और न विद्या की हो सकती है। यह तो बहुत थोड़ा सा दोष प्रकट किया इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गमावें। जो कुछ इस में थोड़ा सा सत्य है वह वेदादि विद्या पुस्तकों के अनुकूल होने से जैसे मुझ को ग्राह्य है वैसे अन्य भी मजहब के हठ और पक्षपातरहित विद्वानों और बुद्धिमानों को ग्राह्य है।" (चतुर्दश समुल्लास)

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।। (चतुर्दश समुल्लास)

उपर्लिखित सभी तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की महर्षि दयानंद सत्य के प्रति कितने गंभीर थे, उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में केवल सत्य को ग्रहण करवाने हेतु ही पुस्तक का सृजन किया, महर्षि ने अन्य मत मतांतरों, सम्प्रदायों में भी जो जो सत्य देखा उसे अपनी सत्यार्थ प्रकाश में समीक्षा के अंतर्गत लिखा है देखिये :

"और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे।" (त्रयोदश समुल्लास)

(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहां से निकलवा दी और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः और शब्द सुना लड़के का। यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला यह ईश्वर और ईश्वर की पुस्तक की बात कभी हो सकती है? विना साधारण मनुष्य के वचन के इस पुस्तक में थोड़ी सी बात सत्य के सब असार भरा है।।२५।। (त्रयोदश समुल्लास)

"खुदा ने शैतान से पूछा कहा कि मैंने उस को अपने दोनों हाथों से बनाया, तू अभिमान मत कर। इस से सिद्ध होता है कि कुरान का खुदा दो हाथ वाला मनुष्य था। इसलिए वह व्यापक वा सर्वशक्तिमान् कभी नहीं हो सकता। और शैतान ने सत्य कहा कि मैं आदम से उत्तम हूँ, इस पर खुदा ने गुस्सा क्यों किया? क्या आसमान ही में खुदा का घर है; पृथिवी में नहीं? तो काबे को खुदा का घर प्रथम क्यों लिखा? (१३५)" (चतुर्दश समुल्लास)

उपरोक्त शंकाए भी सत्यार्थ प्रकाश से ही उद्धृत हैं जिनमे ऋषि ने सत्य बात को सत्य ही कहा क्योंकि बाइबिल और क़ुरान में शैतान ने सच बोला जिसे ऋषि ने भी सत्य माना, मगर क़ुरानी खुदा और बाइबिल का यहोवा झूठ बोले ऐसा क्यों ?

क्या सतीश चंद गुप्ता जी अब बताने का कष्ट करेंगे की ऋषि ने जो सत्य का मंडन किया उसपर तो आपने समीक्षा की समीक्षा बिनवजह कर डाली मगर जो क़ुरानी खुदा ने झूठ का प्रचार किया आदम और हव्वा से उसपर आपकी चुप्पी क्या पूर्वाग्रह से ग्रसित है अथवा मत सम्प्रदाय की असत्य बात को भी सच मान लेने से आप इस पर समीक्षा न करोगे ?

लेख लिखने को तो बहुत बड़ा हो जावेगा मगर अभी के लिए केवल इतना ही लिखते हैं इस से पाठकगण बहुत कुछ समझ और विचार लेंगे की सतीश चंद गुप्ता जी की सत्यार्थ प्रकाश पर समीक्षाएं कितनी वाजिब हैं और कितनी नहीं।

आइये लौटिए वेदो की और।

नमस्ते
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